कोई खिड़की नहीं, झरोखा नहीं….
उसने जब उठते हुए रोका नहीं
मैने भी चलते हुए सोचा नहीं।
सामने सबके गले लग के मिले
कभी तन्हाई में तो पूछा नहीं।
इतना हंसना, ये मुस्कराना तेरा
कहीं जमाने से तो धोखा नहीं।
कैसे आऊं बता तेरे दिल में
कोई खिड़की नहीं, झरोखा नहीं।
नींद आ जाए, अश्क बहते रहें
वैसे इस तरह कोई सोता नहीं।
आप हीं बदलें खुद अपना चेहरा
आईने में तो हुनर होता नहीं।
…….सतीश कसेरा
nice poem
Thanks Mohit
आप हीं बदलें खुद अपना चेहरा
आईने में तो हुनर होता नहीं।
Waaaaah
शुक्रिया अंकित
Wah
Nice
बहुत खूब