घिस-घिस रेत बनते हो
अहो पत्थर! नदी से
घिस- घिस रेत बनते हो,
धूल बह जाती है,
तुम ही तुम शेष रहते हो।
नदी की नीलिमा में
तुम बहुत ही श्वेत लगते हो।
भवन निर्माण में
तुम्हीं मजबूत बनते हो।
फिर भी नजीरों में जमाना
भावनाहीनों की तुलना
पत्थरों से कर
निरा अपराध करता है।
बोल कर पत्थर का दिल
पत्थर का वो अपमान करता है।
अहो पत्थर! नदी से
घिस- घिस रेत बनते हो,….. फिर भी नजीरों में जमाना
भावनाहीनों की तुलना
पत्थरों से कर
निरा अपराध करता है।
बोल कर पत्थर का दिल
पत्थर का वो अपमान करता है।
____________ पत्थर भी आते हैं काम पत्थरों से हो भवन निर्माण अतः कवि के कोमल ह्रदय ने समाज से यह आह्वान किया है कि,भावना हीनाें की तुलना पत्थर से न की जाए, बहुत सुंदर विचार …वाह बहुत शानदार लेखन
बहुत शानदार रचना
अहो पत्थर! नदी से
घिस- घिस रेत बनते हो,
धूल बह जाती है,
तुम ही तुम शेष रहते हो।
नदी की नीलिमा में
तुम बहुत ही श्वेत लगते हो।
भवन निर्माण में
तुम्हीं मजबूत बनते हो।
सुंदर कल्पना एवं सुंदर भाव हैं
सुंदर