जब तक खुले थे विद्यालय

जब तक खुले थे विद्यालय
दिन में खाने को मिलता था,
पानी की दाल भले ही थी
पर कुछ जीने को मिलता था।
कोविड़ क्या आया, क्या बोलें
स्कूल के पट सब बंद हुए,
थोड़ा सा भूख मिटाते थे
आशा के पट वे बन्द हुए।
पैसा ऊपर से पूरा था
लेकिन हम तक आते आते
गीले चावल हो जाते थे,
उनको हम चाव से खाते थे।
पतली सी डाल बनी होती
दाने ढूंढे मिलते ही न थे,
शब्जी सपने में आती थी
उस पर छौंके पड़ते ही न थे।
लेकिन जैसा था, कुछ तो था
अब तो उसके भी लाले हैं,
कोविड़ जायेगा फिर खायेंगे
ऐसी आशा पाले हैं।
अब भी थोड़ा सा मिलता है
हर महीने दो-ढाई किलो वही
माथे पर टीका जितना है
भर पाता उससे पेट नहीं।

Related Articles

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-34

जो तुम चिर प्रतीक्षित  सहचर  मैं ये ज्ञात कराता हूँ, हर्ष  तुम्हे  होगा  निश्चय  ही प्रियकर  बात बताता हूँ। तुमसे  पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड़ से, कटे मुंड अर्पित करता…

प्यार अंधा होता है (Love Is Blind) सत्य पर आधारित Full Story

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥ Anu Mehta’s Dairy About me परिचय (Introduction) नमस्‍कार दोस्‍तो, मेरा नाम अनु मेहता है। मैं…

Responses

  1. विद्यालयों में मध्यांतर भोजन पर आधारित रचना और कवि सतीश जी की गरीब बच्चों को कोरोना काल में भोजन मिलने की व्यवस्था ना होने का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती हुई बेहद संजीदा रचना

New Report

Close