टूटते क्यों नहीं
टूटते क्यों नहीं
सत्ता के
पाषाण ह्रदय तटबंध
उन आँसुओं के सैलाब से
जो बहते है गुमसुम
बच्चों की खाली थाली देखकर
जब चीख उठते हैं पैरों के
बड़े बड़े लहूलुहान चीरे
फटे कंधे साहस दिलाते
फिर
कल की उम्मीद में सो जाते है
पीकर
उन्हीं अश्रुओं को …
वाह वाह
Nice poem
गरीब जनता की बेबसी और सत्ता की कुरता को उजागर करती हुई सफल प्रस्तुति 👌
बहुत ही सुन्दर
मनुष्य की बेबसी को उजागर करती हूं सुंदर रचना
वाह