दायरे

दायरे
____
****
दायरे थे ही नहीं मानव की लालसा के!
हर तरफ फैलाव था पैर पसारे।
जीव सीमट रहे थे दायरो में….

लुप्त और लुप्तप्राय होते जीव
सिर्फ किताबो में छपी तस्वीर बनते जा रहे थे।

बंजर होती धरती ….
सिमटते वनस्थल….

त्राहिमाम की कर्कश ध्वनि ….
जीवो का हाहाकार….
कानों को भेदता,
मानव का क्रूरतम अट्टहास।

बेलगाम मानवता…
दिखावटी जीवन …..
आधुनिक बनते हम।

लहूलुहान धरती….
कटते, सूखते दरख़्त…..
टूटते पहाड़, मौसम के बदलते मिजाज।

अचानक !
रुक गया सब कुछ..
कस गई लगाम…
बंधक हम सब…
जीव जंतु बेलगाम

सूनी नहीं है राहें! मानव के बिना
शांत है बस….

जहां कभी दिखते भी न थे जीव जंतु …..
आज बिना किसी रोक-टोक …
पूरी आजादी से …
बिना किसी डर के ..
नाचते हैं ये सब।

प्रातः बेला….
पक्षियों के गीत…
हवाओं का संगीत…..
भीनी स्वच्छ पवन …
अद्भुत सुंदरता लिए अंबर…

उस पर उगता..
सुनहरी आभा लिए सूर्य..
अद्भुत, अद्वितीय नजारे।

स्वच्छ निर्मल नदियां . …
जैसे मिट गए हो
मलीनता के सारे दाग…
उदास नदियां मुस्कुरा उठी हैं जगमगा रही हैं..
और मानव!
बेड़ियों में जकड़ा लाचार निशब्द..
बढ़ती लालसा अचानक सिमट गई हैं ..
दायरो में रहना सीख ही लिया आखिर मानव ने….।

महसूस किया होगा
उस घुटन को जो मानव ने अपने कृत्यों से पूरी कायनात को जबरदस्ती थोप कर भेंट दी थी…

अब सिमट रहे हैं दायरे मानव के….
दिन पर दिन छोटे होते जा रहे हैं।

बेबस मानव दायरो में रहना सीख रहा है।

जैसे जीव जंतु सिमट गए थे
मानव की बढ़ती लालसा के कारण दायरों में।

आज मानव उन्हीं दायरो में सिमटा है
अपनी आजादी की उम्मीद लिए हाथ जोड़े प्रार्थना करता।।

भगवान की लाठी में आवाज नहीं होती…..
सिर्फ महसूस होती है
उस की धमक।

आंखों में पश्चाताप के आंसू
और अपने कृत्य!

निमिषा सिंघल

Related Articles

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-34

जो तुम चिर प्रतीक्षित  सहचर  मैं ये ज्ञात कराता हूँ, हर्ष  तुम्हे  होगा  निश्चय  ही प्रियकर  बात बताता हूँ। तुमसे  पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड़ से, कटे मुंड अर्पित करता…

सफेद दरख्त

सफेद दरख्त अब उदास हैं जिन परिंदों के घर बनाये थे वो अपना आशियाना ले उड़ चले। सफेद दरख्त अब तन्हा हैं करारे करारे हरे…

Responses

New Report

Close