बेटी और बहू में फर्क
वो उठा ले झाडू तो सबकी
शामत आ जाती है
मेरे पूरे दिन की मेहनत
ना रास किसी को आती है
हाथ में उसके पानी पकड़ाओ
तब वो मैडम पीती हैं
उम्र में हैं मुझसे छोटी पर
आर्डर देती रहती हैं
हाथ में उसको टिफिन बनाकर
मैं ही प्रतिदिन देती हूँ
एक भी दिन यदि देर हुई तो
ताने सुनती रहती हूँ
वो लाडली है, मुझसे बेहतर है
हर दम यही जताया जाता है
मुझको उसके आगे हरदम
छोटा दिखलाया जाता है
ऐसा क्यों है ?
यह सवाल मैं खुद से करती रहती हूँ
मुझमें ही है खोंट कोई
यह खुद से कहती रहती हूँ
दूध उबल जाए तो फिर
संस्कारों पर मेरे सवाल उठे
धीरे-धीरे काम करो
मेरी बेटी ना जाग उठे
उसको इतना प्यार है मिलता
मुझको हरदम ताने क्यों ?
बेटी और बहू में दुनिया फर्क
इतना माने क्यों ?
काव्यगत सौंदर्य और समाज में योगदान:-
यह कविता मैंने बेटी और बहू में अन्तर करने वालों के लिए लिखी है.
मेरा उद्देश्य यह फर्क मिटाकर दोनों के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाने
का है.
जो घर में बहू बनकर आती है वह भी किसी की लाडली बेटी ही है.
वह अपना सब कुछ छोंड़कर आती है उसे प्रेम से अपनाने की आवश्यकता है ना कि किसी उपदेश की..
बेटी ही दूसरे घर की बहू है और बहू भी किसी घर की बेटी है,ये सभी जानते हैं । मगर फिर भी…
” ससुराल में सभी ने ये पूछा, बहू दहेज़ में क्या लाई,
किसी ने ये नहीं सोचा,एक बेटी क्या-क्या छोड़ कर आई”.
बहुत संवेदनशील रचना
बिल्कुल सही कहा दी..थैंक्यू
यथार्थ चित्रण
धन्यवाद
सुन्दर अभिव्यक्ति
अतिसुंदर
धन्यवाद