मुक्तक

सूख गई धरती दाने दाने को पंछी भटक रहा
झंझावात में बिन पानी सांसे लेने में अटक रहा |
तिस पर भी प्रतिदिन मानव संवेदन शुन्य हुआ जाता संस्कार प्रकृति नियम अब भी उसके मन खटक रहा
यह विभत्स दृश्यांक मनुज ने गरल वमन कर लाया है
अब भी मानव नीज हाथों विष का प्याला गटक रहा
सदियों से पर्यावरण में व्याप्त उपद्रव के चलते
खड्ग गले पर जन जन के असुरक्षा की लटक रहा||
उपाध्याय….

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