” मौत करती है रोज़ “

मौत करती है नए रोज़ बहाने कितने

ए – अप्सरा ये देख यहाँ तेरे दीवाने कितने

 

मुलाक़ात का इक भी पल नसीब ना हुआ

कोई मुझ से पूछे बदले आशियाने कितने

 

तेरे इंतजार में हुई सुबह से शाम

ये देख बदले ज़माने कितने

 

उन्हें भूख थी मुझ से और उल्फ़त पाने की

लेकिन दिल में मेरे चाहत के दाने कितने

 

नशीली उन निग़ाहों को देख

नशा परोसना भूल गए मयख़ाने कितने

 

रंग जमा देती है मेरी सुखनवरी हर महफ़िल में

मगर उस रुख़ – ए – रोशन ने अल्फ़ाज़ मेरे पहचाने कितने

 

यादों में हुए तेरी  कुछ यूं संजीदा

दिल को तसल्ली देने गाये तराने कितने

 

उनकी तरकश में था इक तीर – ए – मोहब्त

मेरे ज़ख्मी दिल पर लगे निशाने कितने

 

इक मरतबा चले सफ़र – ए – मोहब्त पर

राह में मिले मुझे उलाहने कितने

 

वक़्त के साथ थोड़ा हम भी बदल गए

बेजुबां दिल से अब अल्फ़ाज़ सजाने कितने

 

तस्वीर कुछ यूं बसी उनकी नैनों में

दिखे दर्पण में उनके नज़राने कितने

 

कम से कम ख़्वाबो में तो कर दे इज़हार

नसीब हो  मुझे लम्हें ये सुहाने कितने

 

मैँ पूरी तरह लिपट चूका हूँ वसन – ए – मोहब्त में चाहत के रंग मुझे अब छुड़ाने कितने

 

मुसलसल है जो इश्क़ की आग दिल में

आये दीवाने इसे बुझाने कितने

 

इक दफ़ा  ना कर दीदार तो अंखियों में नींद कहा

वरना आये मुझे ख़्वाब सुलाने कितने

 

फ़ीके पड़ रहे है दिन – ब – दिन जिंदगी के रंग ” पंकजोम प्रेम ”

अपनी मोहब्त के रंग में आए रंगाने कितने

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Responses

  1. मुसलसल है जो इश्क़ की आग दिल में
    आये दीवाने इसे बुझाने कितने….really nice..whole poetry 🙂

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