*हिन्दी की परीक्षा*
**हास्य रचना**
हिन्दी की परीक्षा थी उस दिन,
चिंता से हृदय धड़कता था
बूंदा-बांदी भी हो रही थी,
रह-रहकर बादल गरजता था।
भीगता-भागता विद्यालय पहुंचा,
पर्चा हाथों में पकड़ लिया,
फ़िर पर्चा पढ़ने बैठ गया,
पढ़ते ही छाया अंधकार,
चक्कर आया सिर घूम गया।
इसमें सवाल वे आए थे,
जिनमें मैं गोल रहा करता,
पूछे थे वे ही प्रश्न कि जिनमें,
डावांडोल रहा करता
छंद लिखने को बोला था,
मेरी बोलती बंद हो गई।
अलंकार के प्रकार पूछे थे,
मेरी लेखनी कहीं खो गई।
यमक और श्लेष में अंतर,
कभी समझ ना आता था
उपमा और रूपक का भेद भी,
कभी जान ना पाता था।
बस एक अनुप्रास ही आता था मुझको,
वही अलंकार भाता था मुझको,
उसका प्रश्न ही नहीं आया
यमक-श्लेष और उपमा-रूपक,
दोनों प्रश्न छोड़ आया
गांधी जी पर निबंध आ गया,
मैं चाचा नेहरू रट कर आया था
लिख दिया महात्मा बुद्ध ,
महात्मा गांधी जी के चेले थे
गांधी जी के संग बचपन में,
आंख मिचौली खेले थे।
रिक्त स्थान की पूर्ति करनी थी
सूर्य की किरणों में…..रंग हैं
मैंने लिखा “सुनहरा”
बाद में पता चला सात रंग,
मैं तो हैरान था थोड़ा परेशान था
मैंने तो बस सुनहरा रंग ही देखा,
यह सात रंग कहां से आए,
खैर जो होगा अब देखा जाए
उचित मुहावरा लगाइए…
एक अनार सौ…..
मैंने लिखा खाने वाले,
बाद में पता चला,”बीमार”आना था।
यह जानकर मैं हैरान था,
थोड़ा सा परेशान था।
चिकना घड़ा का अर्थ….
मैंने लिखा बहुत सुंदर
बाद में पता चला, बेशर्म होता है
मैं फ़िर हैरान था….
चिकना घड़ा तो कितना सुंदर होता है।
अंगूर खट्टे हैं का अर्थ___
मैंने लिखा छोटे अंगूर
बाद में पता चला___
कोई वस्तु ना मिले तो बुरा बता दो
अर्थात झूठ बोल दो..
मैं हैरान था बड़ा परेशान था,
झूठ बोलने को मना करते हैं,
मुहावरे के नाम पर बोल दो
इस सच से मैं अनजान था।
मैं बालक भोला-भाला,
मेरा ह्रदय डोल गया,
छोटे अंगूर ही खट्टे होते हैं,
मैं तो सत्य ही बोल गया।
यह सौ नंबर का पर्चा था,
मुझको दो की भी आस नहीं,
चाहे सारी दुनिया पलटे,
पर मैं हो सकता पास नहीं।
परीक्षक ने सारे पर्चे जांच लिए,
जीरो नंबर दे कर के,
मेरे बाकी के नंबर काट लिए।
_____✍️गीता
बहुत बहुत बहुत हीं सुन्दर प्रस्तुति
न मिर्च न मशाला पर स्वाद चोखा।
पढ़के तेरी रचना हँसी को किसने रोका।।
अतिसुंदर 💯 में 💯
इतनी सुंदर समीक्षा हेतु आपका बहुत-बहुत धन्यवाद भाई जी, 🙏🙏उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार।
आपका स्नेहाशीष यूं ही बना रहे
छोटे अंगूर ही खट्टे होते हैं,
मैं तो सत्य ही बोल गया।
यह सौ नंबर का पर्चा था,
मुझको दो की भी आस नहीं,
———- बहुत खूब, हास्य रस की बहुत सुन्दर रचना है। कवि गीता जी ने संतुलित भाव से हास्य साधना की है। बहुत खूब
कविता की इतनी सुंदर समीक्षा के लिए बहुत-बहुत आभार सर। प्रोत्साहन देने और उत्साह बढ़ाने के लिए,
आपका हार्दिक धन्यवाद सतीश जी
बहुत खूब
बहुत-बहुत धन्यवाद पीयूष जी