ग़ज़ल

ज़िंदगी को इस—–तरह से जी लिया ।

एक प्याला-–फिर; ज़हर का पी लिया ॥

वक़्त के सारे  ‘थ…पे…ड़े’  सह लिए ।

गम जो बरपा, इन लबों को सी लिया ॥

अब अगर कुन्दन—सा दीखता….मैं दमकता ।

‘सूरज—मुखी’ या ‘रात—रानी’……बन गमकता ॥

छुपी हुई “अनुपम” दास्ताँ, ‘भीषण’ रण की ।

उम्र है : सहमी चिड़िया और वक़्त : क्रूर बहेलिया॥1.19॥

गोयाकि ; ग़ज़ल है ! [A03.01-018]

ग़ज़ल —– : अनुपम त्रिपाठी

गम का यारों रोज़ इक मैं, ‘सिलसिला’ हो जाऊंगा ।

‘देखना : तुम’ ; ‘सूखकर : मैं’, फिर हरा हो जाऊंगा ॥

 

आग में ‘विरहा’ की मुझको, ‘सु—र्ख—रू’ हो लेने दो ।

‘चौं-धि-या’ जायेगी दुनिया, जब ‘खरा’ हो जाऊंगा ॥

 

याद के जंगल में कहीं, गूँजेगी यूं ही ‘आहट’ मेरी ।

ढूँढने निकलेंगे सारे,  [मैं] ‘गुम—शुदा’ हो जाऊंगा ॥

 

काटते हैं ‘पर’ : परिंदों के, यहाँ ज़ालिम हैं : लोग ।

‘छट…पटा…कर’ मैं ; उड़ूँगा, आसमां : हो जाऊंगा ॥

 

ख़ून से तर ‘ऊँ-ग-लि-याँ’ , अब वो छुपाएगा कहाँ ।

गीत गायेगा मिरे तो , “ मर्सिया “ हो जाऊंगा ॥

 

भूलना चाहो भी तो, कैसे ‘भु……ला’ पाओगे तुम ।

‘अक्स’ कैसे मिट सकेगा, ‘आ…ई…ना’ हो जाऊंगा ॥

 

जब ‘मिलन’ की रात कोई, ‘गुन—गुना’ के आएगी ।

प्रणय के अंतिम पहर की, इक ‘दुआ’ हो जाऊंगा ॥

 

हर ग़ज़ल में ‘आ…ग’ की, तासीर “अनुपम” की बसी ।

जब ‘ज़मीं’ ‘आवाज़’ देगी, ‘सरहद’ पे खड़ा हो जाऊंगा ॥

:  अनुपम त्रिपाठी

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मर्सिया —-शोकगीत /   तासीर —प्रकृति

अक्स —प्रतिबिंब /     सुर्खरू––चमकदार

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