काँपते ख़्वाबों को हक़ीक़त
काँपते ख़्वाबों को हक़ीक़त की जुम्बिश न मिली
रूठे अल्फ़ाज़ों को किसी प्यार की बंदिश न मिली
तिश्नगी लबों तक आकर खामोश हो जाती है
कशिश को भी और कोई, फिर कशिश न मिली
फ़लसफ़े इश्क़ के कब हुए मुक़म्मल इस जहाँ में
किसी को बंदगी तो किसी को नवाज़िश न मिली
वो फिक्र भी करते है फिक्र पे करम कर के
ऐसे ज़ुल्म की हद बतौर ऐसी साज़िश न मिली
तिरी गुनाहों की परस्तिश कैसे करता ‘अरमान
खैर बस ये तुझे मेरे जज़्बात की रंजिश न मिली
राजेश’अरमान’
Good
वाह बहुत सुंदर