चलो फिर से कुरेदते हैं।
चलो फिर से कुरेदते है
बीती सुध को,
चंद निमेषों को,
अनुराग भरें संदेशों को,
चलो फिर से कुरेदते है।
क्या अनुपम वेला!
आह्लादों का मैला!
प्रेम-क्रीडा से; मैं था खेला,
गुजरे वक्त की किताबो को,
चलो फिर से खोलते हैं।
क्षत को ,
चलो फिर से कुरेदते है।
टीस की घुट्टी,
दर्द का तुफान,
बैचेनियों की सरसराहट;
आया उफान,
तनहाई के पत्तों को
चलो फिर से बिखेरते हैं,
अभागी नियति को,
चलो फिर से कुरेदते हैं
— मोहन सिंह (मानुष)
बहुत सुंदर काव्य सृजन
मेरी रचना को अपना कीमती समय देने के लिए और समीक्षा करने के लिए, हृदय की गहराइयों से ,बहुत-बहुत आभार एवं बहुत-बहुत धन्यवाद
सुंदर रचना
धन्यवाद 🙏 जी
Nice
संयोग श्रृंगार की यादों को ताजा करती पंक्तियाँ कविता की पूर्णता पर वियोग से ही जूझते रहने का अहसास करा रही हैं, तद्भव, तत्सम एवं अरबी-फ़ारसी शब्दों का का सुंदर तालमेल है. वाह
Shabdkosh bahut hi Sundar Aur vyapak Hai alankaran ka Yatra uchit prayog Kiya gaya hai
जितनी तारीफ की जाए उतनी ही कम
बहुत सुंदर पंक्तियां
बहुत बहुत आभार