चलो फिर से कुरेदते हैं।

चलो फिर से कुरेदते है

बीती सुध को,
चंद निमेषों को,
अनुराग भरें संदेशों को,
चलो फिर से कुरेदते है।

क्या अनुपम वेला!
आह्लादों का मैला!
प्रेम-क्रीडा से; मैं था खेला,
गुजरे वक्त की किताबो को,
चलो फिर से खोलते हैं।
क्षत को ,
चलो फिर से कुरेदते है।

टीस की घुट्टी,
दर्द का तुफान,
बैचेनियों की सरसराहट;
आया उफान,
तनहाई के पत्तों को
चलो फिर से बिखेरते हैं,
अभागी नियति को,
चलो फिर से कुरेदते हैं
                  — मोहन सिंह (मानुष)

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Responses

    1. मेरी रचना को अपना कीमती समय देने के लिए और समीक्षा करने के लिए, हृदय की गहराइयों से ,बहुत-बहुत आभार एवं बहुत-बहुत धन्यवाद

  1. संयोग श्रृंगार की यादों को ताजा करती पंक्तियाँ कविता की पूर्णता पर वियोग से ही जूझते रहने का अहसास करा रही हैं, तद्भव, तत्सम एवं अरबी-फ़ारसी शब्दों का का सुंदर तालमेल है. वाह

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