किताबों के दिन !!

कहाँ रहे अब किताबों के दिन !!
अब तो बस अलमारी में
रखी हुई किताबें
धूल खाया करती हैं
गुजरती हूं जब कभी
उनके करीब से तो
मुझे बड़ी उम्मीद से देखती हैं
कि शायद आज मैं उन्हें
स्पर्श करूंगी, उठाऊंगी,
खोलूंगी, पढूँगी और झाड़ूगी
उनके ऊपर से धूल की परतें !
जो न जाने कब से जमी हैं
और जब मैं मुंह मोड़कर चल देती हूँ
तो वह ना-उम्मीद उठती हैं।।

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Responses

  1. आपकी रचना पढ़कर मुझे गुलजार साहब की रचना याद आ गई
    सही बात है आज के डिजिटल जमाने में किताबें सिर्फ अलमारी में शोभा बढ़ाने की वस्तु ही रह गई हैं
    और उनकी पीर को एक कवि ही अनुभव कर सकता है आपकी कविता में किताबों का मानवीकरण बहुत ही सराहनीय है
    करूंगी उठूंगी खोलूंगी पढ़ूंगी जा डूंगी ऐसे शब्दों का प्रयोग करके आपने कविता को जीवंत और रोचक बनाया है बहुत ही उम्दा कविता

    1. बहुत दिनों बाद इतनी सुंदर समीक्षा में ले सचमुच आप बहुत अच्छे आलोचक हैं आते रहा करिए

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