‘एक माटी का दीपक सिखा गया’
एक माटी का दीपक सिखा गया
खुलकर हँसना,
हँसकर जीना,
जीकर अपना सपना पूरा करना
एक माटी का दीपक सिखा गया…..
बोला प्रज्ञा !
मत रो पगली
आज तो है दीवाली अपनी
मुझे जला तू रौशन कर दे
अपना घर और अपना मन
मुझमें जीने की
अलख जगा गया
एक माटी का दीपक सिखा गया….
दीप जलाये मैंने कितने
मुझको भी कुछ याद नहीं
पिया मिले थे मुझको छत पर
थोड़ा मुझको रुला गये
दीप ने टिमटिम करके मुझको
देखो कैसे हँसा दिया
जी ले तुझमें है
प्रज्ञा शक्ति !
ऐसा मुझको बता गया
फिर से जीना,
फिर से हँसना
एक माटी का दीपक सिखा गया…
Very good
धन्यवाद
माटी के दीपक से जीवन की बहुत सुन्दर तरीके से तुलना की है कवयित्री प्रज्ञा जी ने अपनी इस कविता में । सुन्दर शिल्प और सुंदर भवाभिव्यक्ति
धन्यवाद
very nice poem
धन्यवाद
अतिसुंदर भाव
Tq