Kavita
हे परमतेज! , हे परमतपस्वी !
तुम कब किस देह में रहते हो ?
नहीं दिखते, रहते ओझल निरंतर,
जाने कब किधर विचरते हो ?
हुआ उदय अकाल! हर्ष-उल्लास सहित,
जाने कब नूतन फूटेगा ?
निज निशा-दिवाकर भी तरसे,
जाने कब तेज-तपस्वी उठेगा।
हां! हुई निरंतर आशा कंटक,
बस राई सा आस बच पाया है।
नहीं भाष-आभाष किसलय का किधर भी,
यह बात असह्य निज-निर्जन है।
क्यूँ ? लेते नहीं अवतार हो अवतरण,
आख़िर कब तक चित्कार दिखाओगे ?
हाँ! देख लिया स्व क्षत-विक्षत देह का,
अब तो रुदन भी निज का गरल शत्रु है।
हुयी दीन-हीन रुप स्वमेव की,
मैं प्रकृति माया की आभा हूँ ।
बस कर दे, मेरा उद्धार अंतक्षण में,
यहां मृत कामना भी सुख शाया है।
हुई असह्य, ये अगण्य नव वेश्या,
काल निष्ठुर अति मर्दन है ।
हे! तेज-तपस्वी दिग्विजयी, आतप हो उद्धार करो,
हरो निज का विपदा, ना बेबस बरस निष्प्राण करो।
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