
Satish Chandra Pandey
भाव जगते नहीं क्यों मदद के
December 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
जी रहे हैं स्वयं हम
दिवास्वप्न में,
खुद को भूले हुए हैं
बड़े मग्न हैं।
पीठ संसार के दर्द
से फेरकर,
आँख सबसे चुराकर
बड़े मग्न हैं।
ओढ़ कर तीन कम्बल
पसीना हुआ,
उस तरफ वो निराश्रित
पड़े नग्न हैं।
भाव जगते नहीं क्यों
मदद के कभी
अश्व मन के
किधर आज संलग्न हैं।
पास में है सभी कुछ
नहीं तृप्ति है,
गांठ मन में हैं
भीतर से उद्दिग्न हैं।
तब भी सोये हुए हैं
दिवास्वप्न में,
यूँ ही पल पल गंवाते
दिवास्वप्न में।
उनको देखे बिना भी जमाने हुए
December 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
गीत जिन पर लिखे वे पुराने हुए
उनको देखे बिना भी जमाने हुए,
अब सफर में जुड़े मित्र हैं सब नए
वो पुराने न जाने कहाँ गुम हुए।
बीतते रह गए दिन रही आस बस
फिर मिलेंगे कहा, पर मिले ही नहीं
भीड़ में खोजता ही रहा मन मुआ,
खो गये वे पुराने मिले ही नहीं।
बात जैसी थी पहले रही अब न वो
चाह जैसी थी पहले रही अब न वो।
गीत के बोल भी वो रहे अब नहीं,
खो गए दिन सुरीले क्षितिज में कहीं।
तब की बातें अलग थी अलग आज हैं,
तब समय भी अलग था, अलग आज है,
जो भी अंतर रहा अब व तब में भले,
तब के मित्रों का दिल में रहा राज है।
मकसद पूरा हो गया
December 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
साल भर में मेरा वजन
ढाई सौ ग्राम बढ़ गया
उनको लगा कि
मध्याह्न भोजन योजना का
मकसद पूरा हो गया,
आंकणों में मेरा नाम और
वजन दर्ज हो गया।
जब तक खुले थे विद्यालय
December 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
जब तक खुले थे विद्यालय
दिन में खाने को मिलता था,
पानी की दाल भले ही थी
पर कुछ जीने को मिलता था।
कोविड़ क्या आया, क्या बोलें
स्कूल के पट सब बंद हुए,
थोड़ा सा भूख मिटाते थे
आशा के पट वे बन्द हुए।
पैसा ऊपर से पूरा था
लेकिन हम तक आते आते
गीले चावल हो जाते थे,
उनको हम चाव से खाते थे।
पतली सी डाल बनी होती
दाने ढूंढे मिलते ही न थे,
शब्जी सपने में आती थी
उस पर छौंके पड़ते ही न थे।
लेकिन जैसा था, कुछ तो था
अब तो उसके भी लाले हैं,
कोविड़ जायेगा फिर खायेंगे
ऐसी आशा पाले हैं।
अब भी थोड़ा सा मिलता है
हर महीने दो-ढाई किलो वही
माथे पर टीका जितना है
भर पाता उससे पेट नहीं।
रोटी का होना जरूरी है पहले
December 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
कूड़े के ढेरों में
कुछ तो मिलेगा,
जरा सा खुशी का
सहारा मिलेगा।
नन्हें हैं वे,
रात भर सोचते हैं,
प्रातः को कूड़े में
पथ ढूंढते हैं।
बहुत खुश हुए
जब मिली एक कॉपी
आधी लिखी थी
खाली थी आधी।
अब सोचते हैं
कलम गर मिले तो
नाम खुद लिखना
सीखना है हमको।
मगर भूख कहती है,
कलम और कॉपी
छोड़ो अभी पहले
रोटी तो खोजो।
जिंदा रहें
यह जरूरी है पहले,
रोटी का होना
जरूरी है पहले।
—-डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
भूख यह क्यों रोज लगती है मुझे
December 19, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
ठंड में ये भूख भी
ज्यादा सताती है,
है नहीं चर्बी मगर
हड्डी हिलाती है।
भाग पहुँचा रोज खाता हूँ
मगर ये भूख भी
लौट कर फिर से
मेरा मन कुलबुलाती है।
सोचता हूँ हम गरीबों को
भला ये ठंड भी,
किसलिए इतना सताती है
रुलाती है।
ठंड में कुछ काम-धंधा है नहीं,
पांच-छः दिन बाद में
कुछ काम मिलता है कहीं।
फिर मुई सी भूख यह
क्यों रोज लगती है मुझे,
क्यों रहम करती नहीं
क्यों तोड़ती है यह मुझे।
बस यादों में रह जाते हैं
December 19, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
जाने कहाँ विलीन
हो जाते हैं,
कल तक जो बोलते थे,
मुस्कुराते थे
अपनी भावना को व्यक्त
करते थे वे,
जाने क्यों माटी हो जाते हैं।
शून्य हो जाते हैं।
न कोई अहसास
न कोई वेदना,
बस निर्जीव हो जाते हैं।
पंचतत्व में मिल जाते हैं,
धुंए में उड़ जाते हैं,
जल में मिल जाते हैं
बस यादों में रह जाते हैं।
जाने कहाँ चले जाते हैं।
आपकी किरणें ओ सूरज!
December 19, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
आपकी किरणें
ओ सूरज!
सृष्टि को वरदान हैं,
मूल हैं प्रकृति का
बीज में ये प्राण हैं।
पेड़-पौधे , जीव सारे
आपके होने से हैं
आपकी प्रभा के आगे
दीप सब बौने से हैं।
पालती संसार को हैं
आपकी ये रश्मियां
आपके प्रकाश को पी
अन्न देती पत्तियां।
आपके प्रकाश को पी
वायु देती पत्तियां।
वायु है तब सांस लेते
अन्न है जीवन का रस
आपकी किरणें नहीं तो
कुछ नहीं जीवन का वश।
दस दिशाओं में उजाला
आप हैं तब ही तो है,
दूर है तम, सृष्टि में दम
आप हैं तब ही तो है।
आपकी किरणें
ओ सूरज!
सृष्टि को वरदान हैं,
मूल हैं प्रकृति का
बीज में ये प्राण हैं।
—- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
माता-पिता अकेले
December 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
माता-पिता अकेले
छोड़े हैं गांव में,
कोई नहीं सहारा
रोते हैं गांव में।
तकलीफ और दुःख में
पानी भी पूछने को,
कोई नहीं है संगी
जीवन है डूबने को।
ताकत नहीं रही अब
हाथों में पांव में
मुश्किल हैं काटने पल
जईफी की नाव में।
संतान दूर उनसे
शहरों में जा बसी है,
आशा समस्त बूढ़ी
रोते हुए बुझी है।
वे सोचते हैं हम भी
पौत्रों के साथ खेलें
खेलें नहीं तो थोड़ा
देखें उन्हें निहारें।
लेकिन नसीब को यह
मंजूर ही नहीं है,
होते हुए सभी कुछ
अपने में कुछ नहीं है।
उतना ही सगा हूँ
December 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
पत्थर हूँ मैं
जिस पर घिस कर
चन्दन माथे पर
लगाने लायक होता है,
शीतलता देता है,
खुशबू बिखेरता है।
थोड़ा सा मैं भी घिसता हूँ
चन्दन के साथ,
लेकिन आपको अहसास तक
नहीं होने देता हूँ कि
मैं भी चन्दन के साथ
माथे पर लगा हूँ,
चन्दन जितना आपका
अपना है मैं भी
उतना ही सगा हूँ।
हाँ पत्थर हूँ,
रास्ते का कंकड़ नहीं
पत्थर हूँ
लेकिन संभाले रखना
क्या पता
नींव के काम आ जाऊँ।
बहाता हूँ सरिता
December 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
हर एक कविता
लिखता हूँ जो भी
लक्षित नहीं कोई
स्वयं लक्ष्य हूँ मैं।
किसी से नहीं है
अधिक प्यार मुझको
किसी से नहीं कोई
नफरत है मन में।
स्वयं की खुशी को
लिखता हूँ कविता,
अपने ही भीतर
बहाता हूँ सरिता।
ज्यादा किसी
लफड़े में पडूँ क्यों
स्वयं से ही मतलब
स्वयं पर ही कविता।
नहीं भूख ऐसी
पाऊँ सभी कुछ,
चलूँ राह अपनी
चिन्ता नहीं कुछ।
भागता सा जीवन
फुर्सत कहाँ है,
कविता है ऐसी
सुकूँ कुछ जहाँ है,
सुकूँ देती कविता में
उलझन क्यों पालूँ,
बहे काव्य सरिता
बाधा क्यों डालूँ।
—– सतीश चंद्र पाण्डेय
ऐसे न गीत गाओ
December 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
ऐसे न गीत गाओ
दिल को दुखाओ मत
खुश रहो दूर रहो
औऱ पास आओ मत।
भूले हैं मुश्किल से
वो दिन पुराने,
भूले ही रहने दो
और याद आओ मत।
निगाहों के भीतर
बसे ही रहो ना
अश्क के बहाने
बाहर को आओ मत।
रहो कुछ दिनों खुश्क
मौसम को देखो
ठंडक में ऐसे
बारिश बुलाओ मत।
आने दो पावस
नेह भी उगेगा
पतझड़ में दिल को
ऐसे लुभाओ मत।
— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
सन इकहत्तर के जंगी जवानों
December 16, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
सन इकहत्तर के
जंगी जवानों,
आपको हम सभी का नमन,
आप जांबाज थे हिन्द के
आपको हम सभी का नमन।
ऐसी ताकत दिखाई थी सच में
देखता रह गया था वो दुश्मन,
धूल ऐसी चटाई थी उसको
हाथ बांधे खड़ा था वो दुश्मन,
पाक की सारी नापाक हरकत
पीस कर के बना दी थी चूरन,
सारी सेना को घेरा था उसकी
देखता रह गया था वो दुश्मन।
वो बड़ी जीत थी हिन्द की,
जो लिखी स्वर्ण अक्षर में है,
फौज दुश्मन की नब्बे हजारी
हाथ ऊपर करे जब खड़ी थी,
सीना चौड़ा हुआ हिन्द का,
करके जयघोष सेना खड़ी थी।
सन इकहत्तर के
जंगी जवानों,
आपको हम सभी का नमन,
आप जांबाज थे हिन्द के
आपको हम सभी का नमन।
ऐसी ताकत दिखाई थी सच में
देखता रह गया था वो दुश्मन।
— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
गीत ठंडक के गुनगुनाता हूँ
December 16, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
गीत ठंडक के
गुनगुनाता हूँ,
शूल सी चुभ रही हवाओं में
खुद ही खुद दांत
कटकटाता हूँ,
ये जो संगीत है
स्वयं उपजा,
इसकी धुन में रहता हूँ
जिगर को नचाता हूँ।
राग में रागिनी मिलाता हूँ
बर्फ को बर्फ में रगड़ता हूँ,
उसी से आग बना लेता हूँ।
हाथ में हो न हो लकीर मेरे
कर्म की राह पकड़ लेता हूँ,
स्वेद कितना भी बहे खूब बहे
खुद ही खुद भाग जगा लेता हूं।
अगर कम भी मिले
अपनी अपेक्षा से
उसे स्वीकार करता हूँ,
सदा संतुष्टि रखता हूँ।
शूल सी ठंड में
पावक जला साहस की
थोड़ा सा,
उसे ही ताप लेता हूँ,
स्वयं की भाप लेता हूँ।
दिलों में बढ़ रही ठंडक
का पारा
नाप लेता हूँ।
— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
मगर मत तोड़ना ये तार
December 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
हां दोस्ती है,
इन दिनों रजाई से
उसको ओढ़े बिना नहीं कटते
सुनहरे पल पहाड़ी रातों के।
खुद की तारीफ के
न पुल बांधो
हम तो कायल रहे हैं वैसे ही
तुम्हारी नेह भरी बातों के।
परोसो मत
लजीज व्यंजन यूँ
हम तो खुश हैं खिला दो
केवल तुम,
दाल-चावल स्वयं के हाथों के।
व्यस्त हो
इन दिनों भले ही तुम
कम न हों पल
ये मुलाकातों के।
दूर रहना भले ही तुम
मुहब्बत की निगाहों से
मगर मत तोड़ना ये तार
अपने मन के नातों के।
—- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
(काव्यगत विशेषता- एक प्रयोग है, जिसमें प्रत्येक पद का अपना अलग-अलग पूर्ण अर्थ भी है, और संयुक्तार्थ भी हैं।)
प्रेम का संदेश दें
December 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
अपनी खुशियों पर
रहें खुश
दूसरों से क्यों भिड़ें,
बात छोटी को बड़ी कर
पशु सरीखे क्यों लड़ें।
जिन्दगी जीनी सभी ने
क्यों किसी को ठेस दें,
हो सके तो कर भलाई
प्रेम का संदेश दें।
आज दुनियाँ में कमी है
प्रेम की, उत्साह की
कर प्रेरित हर किसी को
प्रेम का संदेश दें।
क्या रखा है तोड़ने में
जोड़ने की बात कर
एक माला में गूंथे
यूँ बिखरना छोड़ दें।
नफ़रतों को त्याग दें
इंसानियत को पास रख,
दूसरों को भी दें जगह दें
शूल बोना त्याग दें।
क्या करेंगे कर इक्कठा
हाथ आना कुछ नहीं
कुछ जरूरतमंद को दें
साथ जाना कुछ नहीं।
अपनी खुशियों पर
रहें खुश
दूसरों से क्यों भिड़ें,
बात छोटी को बड़ी कर
पशु सरीखे क्यों लड़ें।
—— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
शौर्य, साहस साथ रख
December 14, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
मत बहा आँसू
पी जा दर्द भी है तो,
काम ले हिम्मत से
आंसू हैं अमी का जल,
नहीं होना विकल
सब कुछ ठीक होगा
और आयेगा सुहाना कल।
वक्त सब दिन
एक सा रहता नहीं है मान ले,
मधुमास को पतझड़ जरूरी
सत्य है यह जान ले।
दुःख व सुख का चक्र
चलता ही रहा है,
परीक्षा आदमी की
दर्द लेता ही रहा है,
एक भी इससे अछूता
रह न पाया।
किसी को कुछ
किसी को कुछ,
दुखों को झेलते हैं सब
बिना कष्टों के आखिर,
कौन मंजिल जीत पाया।
शौर्य, साहस साथ रख
आंसू नहीं, शुचि प्रज्वलित कर,
ठान ले उत्साह से
निज कामना को तू फलित कर।
— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
कुछ समझ आता नहीं
December 14, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
किस तरफ की बात बोलूं
कुछ समझ आता नहीं,
सत्य क्या है झूठ क्या है
कुछ समझ आता नहीं।
एकतरफा बात सुनकर
धारणा कुछ और थी
दूसरे के पक्ष को सुन
कुछ समझ आता नहीं।
बाहरी आभा सभी की
खूबसूरत मस्त दिखती
भीतरी हालत है कैसी
कुछ समझ आता नहीं।
पक्ष की अपनी हैं बातें
फिर विपक्षी की दलीलें
कौन सच्चा देशसेवी
कुछ समझ आता नहीं।
ठंड में ठिठुरा हुआ हूँ
गर्म मौसम में झुलसता,
कौन सा मौसम सही है
कुछ समझ आता नहीं।
पहले बचपन फिर जवानी
सब अवस्था देखकर
कौन सी स्थिति सही है
कुछ समझ आता नहीं।
खुशियाँ तो
December 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
खुशियाँ तो मन की
उथल-पुथल से
सीधी जुड़ी हुई हैं,
मन में यदि संतुष्टि है
तब हम जरा सी बात पर
खुश हो सकते हैं,
मजे में रह सकते हैं।
मगर मन अनियंत्रित है,
और संघर्ष का माद्दा नहीं है
या संघर्ष कर पाने की
परिस्थिति नहीं है ,
तब हम न छोटी चीजों में
खुश रह पाते हैं,
न बड़ी चीजों तक पहुँच पाते हैं,
बड़ी चीज और बड़ी चीज
बड़ी से बड़ी चीज
बड़ी का कोई अंत नहीं
अस्थिर लालसा
अस्थिर खुशी।
प्रयास करना अनुचित नहीं है
लेकिन मन को विचलित कर
बेचैन रहना और
छोटी-छोटी खुशियों को
नजरअंदाज करना उचित नहीं है।
छोटी खुशियों में खुश नहीं रहे
व बड़ी खुशी आने तक
खुद नहीं रहे,
तब पाये तो क्या पाये
जब क्षण नहीं रहे।
—– डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
आपका जब संग है
December 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
खूबरसूरत जिन्दगी
आपके कारण ही है,
आप हैं, तब है सभी कुछ
जिन्दगी में रंग है।
आप इस सूखी धरा में
प्रेम की बरसात हैं,
और क्या अवलम्ब खोजूँ
आपका जब संग है।
हों भले पथरीली राहें
हर तरफ कंटक पड़े हों,
भय नहीं पग को तनिक भी
आपका जब संग है।
यूँ तो चंचल मन की ढेरों
ख्वाहिशें रहती हैं लेकिन,
ख्वाहिशें सब गौण सी हैं
आपका जब संग है।
उलझे केशों से था जीवन
आप जब तक दूर थे
आप अब मन में बसे
बेढंग में भी ढंग है।
खूबरसूरत जिन्दगी
आपके कारण ही है,
आप हैं, तब है सभी कुछ
जिन्दगी में रंग है।
– — डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
मुहब्बत जीवनोदक है
December 12, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
मुहब्बत पवित्र है
पवित्र से भी पवित्र है,
अनुपमेय है,
वह बंट नहीं सकती,
सच्ची की मुहब्बत
कभी घट नहीं सकती।
न दिखावा इसमें
न औपचारिकता,
मुहब्बत देखती है बस
वास्तविकता।
मुहब्बत जीवनोदक है
इसका दुश्मन शक है,
आत्मश्लाघा का कोई स्थान नहीं
बिना इसके तन में
सच्ची जान नहीं।
ईक्षण की ज्योति है यह
जिन्दगी का रस है यह,
यह अधर की लालिमा है,
चाहत किसी लालच बिना है।
फिर मधुर सी गुनगुनाहट
December 12, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
कोई यहाँ आया नहीं
गीत भी गाया नहीं
फिर मधुर सी गुनगुनाहट
कान में कैसे बजी।
क्या पवन संदेश लाई
भूतकालिक प्रेम का
या किसी शैतान भँवरे की
है यह मुझ पर ठिठोली।
पर लगा ऐसा कि जिसके
तार थे दिल से जुड़े,
आज उसके शब्द कैसे
कान में आकर पड़े।
बूंद सी थी वह मुहब्बत
खो गई थी जग-उदधि में
वक्त बीता, हम भी संभले
घिस गये थे शूल गम के।
आज फिर से याद करने
को किया मजबूर है,
खो गया बीता हुआ कल
जो गया चिर दूर है।
चलती साँसों में बसा आज हो तुम
December 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
बीते कल की नहीं कहानी तुम
चलती साँसों में बसा आज हो तुम
प्यार की, दिल्लगी की बात नहीं
इससे बढ़कर रहे हो नाज हो तुम।
अहमियत क्या बताएँ, कैसी है
तन में धड़कन है जैसी वैसी है,
यह युमन है कि तुम हमारे हो
खूब प्यारे हो, बहुत प्यारे हो।
रोशनी हो, उमंग हो तुम ही
खिलते जीवन के रंग हो तुम ही
हम हैं कल्पक व तुम प्रेरक हो,
जिन्दगी की तरी के खेवक हो।
आओ बस बैठे रहो पास में तुम
जिन्दगी रसमयी बनायें हम।
अन्यथा तम है अभी भी (गीतिका छंद में)
December 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
अब सवेरा हो गया है,
कब मुझे लगने लगे।
अस्त सारा तम हुआ है
कब मुझे लगने लगे।
उग रही कोपल खुशी की
दृगजल अब सुखना है,
दूर मन का गम हुआ है
कब मुझे लगने लगे।
उठ रहे हैं प्रश्न मन में
पूछते है बात खुद
आस अब नूतन जगेगी
कब मुझे लगने लगे।
देश का यौवन चला है
मार्ग पर उन्नति के अब
कुछ उसे मौका मिला है
जब तुझे लगने लगे।
तब समझ जाना कि सचमुच
में सवेरा हो गया,
अन्यथा तम है अभी भी
बस दिखावा हो गया ।
पौध मुरझा सी रही है,
क्या करें प्रातः से हम,
देख, यौवन की हताशा,
हो नहीं पाई है कम।
इस तरह सब कुछ सही है
किस तरह लगने लगे,
जब नई कोपल हमारी
हूँ व्यथित कहने लगे।
****** गीतिका मात्रिक छंदबद्ध पंक्तियाँ
—- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
कवि मंगलेश डबराल जी को नमन
December 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
समकालीन कविता के
जाने-माने नाम थे वह,
हिंदी कविता की
शान थे वह।
राजनीतिक चेतना व
मानवता की सुरम्य आभा से
सरोबार थे वह,
‘पहाड़ पर लालटेन’ सी
चमकती
पहचान थे वह।
संघर्ष में जूझती
मानवता के अल्फाज थे वह
शीर्ष कवि
मंगलेश डबराल थे वह।
आज उनके परलोक गमन पर
शत-शत नमन और श्रद्धांजलि है
ईश्वर के चरणों में स्थान मिले
उस महान कवि आत्मा को
सादर नमन व श्रद्धांजलि है।
ठंड बढ़ती जा रही है
December 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
ठंड बढ़ती जा रही है
वह सिकुड़ता जा रहा है
रात भर सिकुड़ा हुआ
तन अकड़ता जा रहा है।
सिर व पैरों को मिलाकर
गोल बन सोने लगा,
नींद फिर भी दूर ही थी
क्या करे, रोने लगा।
यूँ तो मौसम सब तरह के
कुछ न कुछ मुश्किल भरे हैं,
ठंड की रातों के पल पल
और भी मुश्किल भरे हैं।
छांव होती गर तुषारापात के
पाले न पड़ता,
काट लेता ठंड के दिन
इस तरह जिंदा न मरता।
पांच रुपये जेब में थे
पेटियां गत्ते की लाया
मानकर डनलप के गद्दे
भूमि पर उनको बिछाया।
क्या कहें ठंडक भी जिद्दी
भेदकर गत्तों का बिस्तर
आ रही थी नोचने तन
बेबस था वह फुटपाथ पर।
—— सतीश चंद्र पाण्डेय
मैं पुहुप हूँ गांव का
December 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
मस्तमौला चाल मेरी
मैं पुहुप हूँ गांव का
आ गया तेरे शहर
कंटक समझ मत पांव का।
घूमता बेघर फिरा हूँ
है मनोरथ छांव का
जिंदगी वारिधि सरीखी
क्या भरोसा नाव का।
मुस्कान में रहता हूँ
December 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
श्वेत कागज में
कलम घिसता हूँ,
इधर-उधर की
कहीं कुछ भी नहीं
जो है दिल में
उसे लिखता हूँ।
विजुगुप्सा से
दूर रहता हूँ
प्रेम के भाव बिकता हूँ।
मिट्टी में खेलते बच्चों की
सच्ची पहचान में रहता हूँ,
सड़क पर पत्थर तोड़ती
माँ के
आत्मसम्मान में रहता हूँ।
बुजुर्गों के सम्मान में और
युवाओं के अरमान में
रहता हूँ।
कवि हूँ हर किसी की
मुस्कान में रहता हूँ।
जो भी लिखता है मन
December 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
जो भी लिखता है मन
स्वयं के लिए,
प्यार-नफरत के भाव
खुद के लिए।
उसे न जोड़ना
कभी भी
अपने भावों के लिए
अपनी चाहत के लिए।
अलग ही रास्ते हैं
न कोई वास्ते हैं,
न कोई दूरियाँ
न करीबियाँ हैं।
मन के जो भाव लिखे
लिखा जो दर्द यहां
वो स्वकीय नहीं
अनुभूतियां हैं।
परानुभूतियों को
उतारा कागज पर
न समझो कि
लिखा किस पर है।
खुद के सुख के लिए है
सृजन यह,
खुद की रोमानियत का
गीत है यह।
गा रहा आँख बंद कर
सुरीली- बेसुरी,
खुद के सीने में
चुभा कर के छुरी।
निकलती वेदना को
लिख-लिख कर
दर्द दूजे का
खुद में सह सह कर,
जो भी सृजित हुआ
वो कहता है,
बिना किसी को किये
लक्षित वह,
खुद ही खुद में
मगन सा रहता है।
नयन नीर सींचे न सींचे..
December 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
वह सोचता है,
यदि रूठ जाऊं
तो वो मुझे मनाये
वो सोचती है रूठने पर
वो मुझे मनाये,
एक सोचता है
दूसरा मुझे मनाये
रूठने पर
न वो मनाती है
न वो मनाता है,
रूठना भी रूठ जाता है,
समय छूट जाता है
बहुत पीछे………
नयन नीर सींचे न सींचे..
प्यार सूखा रह जाता है….
ठेस की आदत मलिन है
December 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
चैन से अब सो रहा मन
मत जगा अब आग तू,
दूर हो जा स्वप्न से भी
मत लगा अब आग तू।
आग केवल शान्त है।
भीतर पड़े हैं कोयले
फूंक मत, रहने दे ऐसे
मत जला अब बावरे।
शांत जल तालाब का
लहरें उठा कर खामखाँ
मत अमन में विघ्न कर तू
बात इतनी मान ना।
राह अपनी शांत अपना
दूसरों को ठेस मत दे,
ठेस की आदत मलिन है
यह बुरी लत फेंक दे।
फूल बोने होंगे
December 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
फूल बोने होंगे
परिवेश में अपने
खुशबू लुटानी होगी,
उल्फत जगानी होगी,
नफ़रतों की सारी
कड़ियाँ मिटानी होंगी।
जो हो सके न अपने
जो दूर जा चुके हों
कहकर पवन से खुशबू
उन तक ले जानी होगी।
चारों तरफ प्रभंजन
सौरभ लुटा दे ऐसा,
सब एक सूत्र में हों
कोई न ऐसा वैसा।
हृदय खुलें सभी के
खुल जायें नासिकापुट
लें सांस प्रेम का सब
अनुराग फैले निर्गुट।
हर एक मन कुसुम की
खुशबू का हो दीवाना
अनुरक्ति रस में डूबा
हर्षित रहे जमाना।
मन उड़ान तेरी
December 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
मन उड़ान तेरी
पंखों बिना चलती रही,
उस तरफ फिर इस तरफ
सब तरफ बहती रही।
चैन आया हो कहीं
ऐसा नहीं संभव हुआ,
एक स्थल पर न टिक पाया
फिरा विस्मित हुआ।
आज मीठा रास आया
और कल भाया नहीं
फिर नमक की चाह आई
तृप्त हो पाया नहीं।
जिन्दगी भर दौड़ चलती ही रही
उलझाव की,
जिंदगी का कब समय बीता
समझ पाया नहीं।
दीप्त जग हो गया सब
December 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
सुबह-सुबह की लालिमा
बिखरी हुई है सब तरफ
ओस की बूंद मोती सी
बिखरी हुई है सब तरफ।
भानु का नूर है आलोक
चारों ओर फैला,
धरा-आकाश मानो बन गए
मजनूँ व लैला।
स्वच्छ पावन मिलन
रात- दिन का हुआ जब
सृष्टि होकर सुबह की
दीप्त जग हो गया सब।
कांतिमय हो दिशाएं
खींचती ध्यान सबका,
मनोरम खेल है यह
सुहाना चक्र रब का।
पोछ ले अश्क सबके
December 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
दर्द जीवन में है जो
रख सरोकार उससे,
किसी को ठेस मत दे
कर ले प्यार सबसे।
पोछ ले अश्क सबके
कष्ट मत दे किसी को,
भाव समभाव के रख
कद्र दे दे सभी को।
खुद भी प्रसन्न रह ले
औऱ को भी खुशी दे,
उदासी में घिरे के
चेहरे में हँसी दे।
मस्त रह, दूसरे से
आस मत रख जरा भी,
खुद में खुद खोज खुशियां,
और को भी खुशी दे।
—— सतीश चन्द्र पाण्डेय
भटकते हुए की पनाह बनो
December 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
रोशनी में चमकता कांच नहीं
अंधेरे में जले, आप वो चिराग बनो
मिटा तमस को, चमक फैलाओ
भटकते हुए की पनाह बनो।
बेसहारा, अनाथ हैं जो भी
उन्हें सहारा दो,
हो सके तो एक तिनके का
डूबते को सहारा दो।
क्या पता आपके सहारे से
किसी को राह मिल जाये,
सूखती पौध को
जरा सी बूँदों से,
फिर खड़ा होने का
सहारा मिल जाये।
छोटी-छोटी खुशियां हैं
December 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
छोटी-छोटी खुशियां हैं
छोटे-छोटे बच्चों की,
छोटी सी खुशी में वे
सहज मुस्काते हैं।
प्यार के जरा से बोल
प्रीति कर दिल खोल,
आप मुस्काओ तो
सहज मुस्काते हैं ।
द्वेष, बैर, नफरत
घृणा से दूर हैं ये,
इसलिए ईश्वर का
रूप कहे जाते हैं।
कोई भी दुराव नहीं
किसी से खिंचाव नहीं,
छोटे से खिलौने में भी
नेह को लुटाते हैं।
अधिक की चाह नहीं
कम का भी गम नहीं,
न्यून हो या वृहद
खुशी में रम जाते हैं।
—— सतीश चंद्र पाण्डेय
कुछ इंतजाम मेरे लिए भी हो
December 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
तर्क हैं वितर्क हैं
पक्ष के भी विपक्ष के भी
देख रहा हूँ
टकटकी लगाये,
कुछ फायदे की बात
मेरे लिए भी हो।
अब पाला पड़ने लगा है
छतरहित घर में मेरे
तीन शेड का इंतज़ाम
मेरे लिए भी हो।
तर्क-वितर्क जो भी हों,
लेकिन
बच्चों को अच्छे स्कूल में
पढ़ाने का इंतजाम
मेरे लिए भी हो।
खाने-पहनने का
इंतज़ाम मेरे लिए भी हो।
कोई बैठे कुर्सी में
लेकिन
जीने का इंतजाम
मेरे लिए भी हो।
ओ! कविता के सृजनकर्ता
December 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
ओ! कविता के सृजनकर्ता, उठा कलम व जोश जगा।
घिर से गए निराशा में जो, उनकी चिंता दूर भगा।
यदि लिखना तू बंद करेगा, कैसे लहर चलाएगा
डगमग पग धरते तरुण को, कैसे राह दिखाएगा।
चुप रह कर तू तंगहाल को, स्वर कैसे दे पाएगा,
दर्द ठिठुरते बच्चों का तू, नहीं तो कौन कहेगा।
तू अब तक पथप्रदर्शक बन, समझाता आया है,
तूने ही दुख-दर्द सभी का, कविता में गाया है।
जीवन का उल्लास और दुख, लिखना अब भी शेष है,
कलम उठा ले सृजन कर ले, लक्ष्य अभी भी शेष है।
——– सतीश चंद्र पाण्डेय,
ज्योति जल अंधेरा मिटा
December 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
ज्योति जल
अंधेरा मिटा दे,
न घबरा हवा की बातों से
कितना बुझायेगी तुझे,
कब तक रुलायेगी तुझे।
ध्यान न दे
बस रोशनी फैला,
अंधेरा मिटा, सच को दिखा।
आ दिये में तेल बनकर
रुई की बत्ती बनकर
या खुद दिया बनकर
किसी भी रूप में आ
मगर आ अंधेरा मिटा,
जमाने को रोशन कर।
किसी बात से न डर,
तम को अपना परिचय दे
संवेदना को लय दे,
अंधेरे के भय से
राहत दे जीवन को
दुखी न कर मन को,
दुखी कर केवल
अंधेरे को।
उलझा हुआ कलमकार हूँ
December 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
उलझा हुआ
कलमकार हूँ,
तमाम विषयों से घिरा
चयन की छटपटाहट में
लय से भटका हुआ हूँ।
शब्द में निःशब्द भर
मौन में गुंजायमान ला
अंकित करने में
असफल रहा हूँ।
ठिठुरते बचपन की व्यथा को
बेरोजगारी की पीड़ा को
किसान की उलझन को
बुजुर्ग की वेदना को,
व्यक्त करने में
असहाय सा रहा हूँ।
खुद न समझ पाया कि
किसके साथ खड़ा हूँ,
या बेबस सा पड़ा हूँ।
विसंगतियों से आंख मूँदकर
पीठ दिखा कर खड़ा हूँ।
तुम्हारा ललित रूप
December 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
छोटी- छोटी पंक्तियाँ हैं
ये जो शायरी की मेरी,
इन्हीं में तुम्हारी सब
खूबसूरती है भरी।
उपमान नए औऱ पुराने
मिला जुला के,
वर्णन जैसा भी किया
सच सच किया है।
देर रात चाँद आया
तब तक सो गए थे,
आधी नींद आ गई थी
शाम होते खो गए थे।
अंधेरे में ढूंढते ही
रह गए थे सौंदर्य को
खोजना था चाँदनी में
खुद हम खो गए थे।
जैसे जैसे सुबह में
आँख खोली रोशनी ने
तुम्हारा ललित रूप
देखते ही रह गये थे।
कभी चन्दन भी लेना घिस
December 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
जरूरी है नहीं हर फूल की
खुशबू मेरी ही हो,
मुझे मेरी जरूरत का मिले
बाकी सभी का हो।
हमेशा जिद कहाँ तक पूर्ण हो
नादान मन की इस,
हमेशा की जलन इसमें
कभी चन्दन भी लेना घिस।
मुँहासे इस उमर में
आ रहे हैं गाल पर मेरे,
झुर्रियां जिस उमर में
उम्र का परिचय बताती हैं।
निगाहें ढूंढती चोरी-छिपे
धब्बों को दूजे के
कमियाँ खूब हैं खुद में
मगर रहते हैं भूले से।
अरी सरिता
December 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
अरी सरिता,
न रुक
चलते ही बन
चलते ही बन।
राह में सौ तरह के
विघ्न हों,
उनको बहा ले जा,
पत्थरों को घिस
पीस दे सब नुकीलापन,
पकड़ ले मार्ग तू अपना
न ला मन में तनिक विचलन।
बना दे रेत पाहन की
किनारे श्वेत हो जायें
रोकना चाहते हों मार्ग जो
तुझमें ही खो जाएं।
स्वयं का मार्ग तूने ही
बनाना है,
समुन्दर तक पहुंचना है,
सतत प्रवाह रखना है।
चाँद
December 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
चाँद तुम रात भर
चले, चमके,
न जाने कब से
सिलसिला ये चला ।
अब तक चल रहा है,
चलते ही जा रहा है।
कोई जा रहा है,
कोई आ रहा है,
लेकिन तुम्हारा सिलसिला
चलता ही जा रहा है।
पूरब से पश्चिम
बिखराते रहे चाँदनी
उगते और अस्त होते रहे
आकार बढ़ता रहा
कम होता रहा,
सिलसिला चलता रहा,
मैं देखता रहा।
पूर्णिमा बना संसार को
प्रकाशित किया,
अमावस में छिप गए,
मिटने और उगने की
कथा लिख गए।
गुनगुनी धूप सी तुम
December 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
बढ़ रही ठंड में
गुनगुनी धूप सी तुम
जिन्दगी में सुगंध फैलाती
मनोहर धूप सी तुम।
मुस्कुराहट इस तरह की
नाजुक सी,
ठोस के साथ में घुलती
जरा सा भावुक सी।
कभी आलिम
कभी हो पागल सी,
नेह से पूर्ण
ढकते आँचल सी।
किसी झरने की
प्यारी कल कल सी
भार्या ही नहीं तुम तो
हो खुशियाँ पल-पल की।
—–@भार्या।
— सतीश चंद्र पाण्डेय
चैन मिलता ही नहीं
December 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
खोजती रहती है दुनिया
चैन मिलता ही नहीं,
यह सही है वह सही है
मन कहीं टिकता नहीं।
आजकल की बात ही
कुछ अलग सी हो गई
असलियत के रंग का
खून भी दिखता नहीं।
अनमोल पल क्यों खोते हो
December 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
सामने बैठे हो
सब कुछ बयान कर दो ना
चाहना है अगर
इजहार कर दो ना।
उड़ा के नींद ऐसे
बेखबर से सोते हो
रखनी हैं दूरियां गर
दिल्लगी क्यों बोते हो।
बोल दो जो भी है
मन में बसा, सुनाओ तो
बीतता जा रहा
अनमोल पल क्यों खोते हो।
—– सतीश चंद्र पाण्डेय, चम्पावत, उत्तराखंड।
मीठी सी ताजगी हो
December 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
आँखों को खोल दे जो
ऐसी ही ताजगी हो
तुम तो सुबह की चाय सी
मीठी सी ताजगी हो।
बाहर निकल के देखा
पौधों में ओस सी हो,
तुम ही तो जिन्दगी में
सचमुच के जोश सी हो।
आनन्द है तुम्हीं से
जीवन सुखद तुम्हीं से,
प्राणों का धन तुम्हीं हो
एकत्र कोष सी हो।
खुशबू हो फूल की तुम
रवि का उजाला हो तुम
हो टेक जिंदगी की
आधार ठोस सी हो।
—– सतीश चंद्र पाण्डेय, चम्पावत, उत्तराखंड
गीत एक लिख देना
December 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
गीत एक लिख देना
संगीत उसे दे देना,
जब कहोगे गा दूँगा
बस मुझे बता देना।
नेह है या दूरी है
जानना जरूरी है,
मौन रह बता देना,
हाल सब सुना देना।
बोलना नहीं कुछ भी
नैन से व चहरे से
भाव सब बात देना
हाल सब सुना देना।
एक भी छिपाना मत
कोई असत बताना मत
सत रहे रिश्ता सदा
मृषा कभी निभाना मत।