औरत खिलौना नहीं

औरत खिलौना नहीं
उसमें भी जान होती है….
औरत होती है ममता की मूर्ति
प्यार की उपमा
हजारों फूलों की खुशबू
विद्यमान होती है उसमें….
औरत पैरों की जूती नहीं
सिर का ताज है…
तपती दोपहरी में
वह पुरवा का झोंका
ठंडी बयार है….
औरत खिलौना नहीं
उसमें भी जान होती है….
स्पष्टता कुछ कह नहीं पाती
क्योंकि सहनशीलता अपार होती है…
समय पड़ने पर
अग्नि ज्वाला से भी ज्यादा तपती है…
निर्दयी बनकर
प्रतिशोध भी लेती है क्योंकि
औरत सब सहन कर लेती है….
परंतु अपमान नहीं
औरत पूजनीय है हर रिश्ते में
हर रूप में आदरणीय है….
नौ महीने गर्भ धारण करके
औरत ही वंश बढ़ाती है
अपनी ममता की छांव में
शिशु को प्यार का पाठ सिखलाती है….
इसीलिए ‘प्रज्ञा शुक्ला’ कहती है:-
औरत निंदनीय नहीं
हर रूप में वंदनीय है…..
जय हो नारी शक्ति की जय।।
हो भारत माता की।।

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