रोटी तलाशती ज़िन्दगी।

तलाशती ये ज़िंदगी कचरे के ढेर में रोटी.
फेक देते हैं हम जो अनुपयोगी समझ के.
कैसे करते गुजर बसर ये भी इंसान तो हैं
जिंदगी ये पाकर मौत गले लगाये चल रहे.
ज़हर भरे स्थानों में इन्हे अमृत की खोज है.
ये जगह दो जून की रोटी देती ही रोज है.
कुछ कपडे ही मिल जायें फटे तन ढकने को.
यही हैं ताकती निगाहें थोड़ा सा हँसने को.
लेकर वही फटी मैली बोरी चल दिये रोज.
मन में विश्वास लिये आज मिलेगा कुछ और.
भूखा है पेट इनका और चेहरे पर मुस्कान.
ढेर कचरे का बन गया अब इनकी पहचान.
कट रही है जिंदगी ऐसे ही गंदगी ढोते हुये.
भविष्य नही इनसे क्या मेरे भारत का महान ?
रश्मि….
Bahut KHoob
Nice poem
very nice poem
Keemat roti ki
बहुत सुंदर पंक्तियां
मार्मिक रचना एवम् चित्रण