लेखक की गरीबी (२)
आपने पहले अंक में पढ़ा — जीवनबाबु के घर में अन्न के एक दाना तक नहीं है। रुपा एक भारतीय नारी की परंपरा पर चलने वाली है। वह अपने पति को भूखे पेट सोने देना नहीं चाहती है। जीवनबाबु के कहने पर रुपा दिलचंद बनिया के पास उधार राशन लाने के लिए चल पड़ती है। जबकि पिछला हिसाब भी चुकता नहीं हो पाया है… (अब आगे)
कुछ देर बाद रुपा दिलचंद बनिया के दूकान पर पहुंच गई।
दिलचंद रुपा को देखते ही कहा –“आओ भाभी। इतनी रात को इस गरीब की याद कैसे आ गयी “।रुपा — “भैया। मुझको उन्होंने भेजा है। घर में अन्न के एक दाना तक नहीं है। उनको आज दिन भर दाना तक नसीब नहीं हुआ है। मुझे कुछ राशन उधार चाहिए ।मै अपने पति को भूखे पेट कैसे सोने दूं”।दिलचंद –“भाभी। मैं आजकल उधार देना बंद कर दिया है। जो ले के जाता है फिर वापस नहीं आता है। अब आप ही कहिए उधार मैं कैसे दूँ “।रुपा दिलचंद की बातें सुन कर असमंजस में पड़ गई। अब वह करे तो क्या करे। कुछ क्षण पश्चात दिलचंद इधर उधर देख कर रुपा को अपने पास बुलाया और कहा — “एक बात कहूं? गर बुरा न मानो तो “।रुपा — “कहिए। दिलचंद — “भाभी। तुम अपने पति के पेट की आग बुझाना चाहती हो। मैं अपनी आग तुम से बुझाना चाहता हूँ। क्यों न हम दोनों मिल कर ऐसे चलें कि, सांप भी मर जाए और लाठी भी बच जाए “।इतना सुनते ही रुपा की पांव तले की ज़मीन खिसक गयी।
बुत बन कर खड़ी ही रही। एक तरफ पति के पेट की आग तो दूसरे तरफ दिलचंद बनिया के हवस की आग। वह करे भी तो क्या करे। दस मिनट के बाद रुपा दिलचंद की शर्तें मान लेती है। दिलचंद खुश हो कर राशन तौला और उसे देते हुए कहा — “कब आओगी”? रुपा –“मैं उनको खाना खिलाकर पहुंच जाउंगी “।दिलचंद –“जरा जल्द आना। समाज से जरा बच के आना ।नहीं तो मेरी नाक कट जाएगी। घर में दो बेटियाँ भी जवान है। उन लोगों को पता लग गया तो अनर्थ हो जाएगा”। रुपा चुपचाप वहां से घर के तरफ चल पड़ी। रुपा अपनी आँखों में आँसू ले कर घर पहुंची। राशन के थैला देखते ही जीवनबाबु ने कहा –“देखा रुपा। दिलचंद बनिया हमें कितना इज्जत करता है। बेचारा बहुत ही नेक इन्सान है “।रुपा कुछ न कहती हुई रसोई के कमरे में जा कर खाना बनाने में व्यस्त हो गई। मगर आंसू की धार रुकने का नाम नहीं ले रहा था। कुछ देर गुजरने के बाद रुपा उनके पास आई और कही — “चलिए खाना तैयार है। जीवनबाबु के संग रुपा भी मन मार कर दो तीन निवाला मुंह में रख ली। फिर दोनो विस्तर पड़ गए। रुपा जीवनबाबु के सिन्हें से लग कर रोने लगी। रुपा दिलचंद की सारी बातें अपने पति को कह दी। जीवनबाबु बहुत देर तक चुप रहे। अंत में अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा –‘क्या तुम दिलचंद की शर्तें मान चुकी हो ” ?(शेष अगले अंक में)
अतिसुन्दर
शुक्रिया सर।
कोमल – कठिन कहानी
समीक्षा के लिए धन्यवाद।
बहुत बढ़िया
धन्यवाद प्रतिमा जो।
सुन्दर अभिव्यक्ति
आपकी सराहना ही मेरी पूंजी है।
सासुन्दर
बढ़िया चित्रण