वह पत्थर तोड़ती थी
वह पत्थर तोड़ती थी
पर दिल की कोमल थी
अपने सीने से लगाकर
बच्चों को रखती थी
भूँख जब लगती थी उसको
तो बासी रोटियाँ पोटली से
निकाल कर खा लेती थी
पर अपने बच्चों को
छाती का दूध पिलाती थी
अन्न का दाना जब नसीब होता था
तो गाना गाते हुए भोजन बनाती थी
मेरी कविता का जो विषय बनी है आज
वो मेरे गाँव की काकी कहलाती थी…
मार्मिक अभिव्यक्ति
Thanks
वो काकी तोड़ती पत्थर, देखा उसे तुमने सीता पुर के पथ पर,वाह प्रज्ञा बहुत ख़ूब
Kya baat h di sundar sameeksha k liye thanks
अतिसुंदर भाव
Thanks