सत्ता और सुन्दरी

सत्ता और सुन्दरी
एक ही सिक्के के दो पहलू
दोनों का चरित्र : दलबदलू

इक- दूजे के बिना अधूरे
दोनों प्रतिबध्द परस्पर पूरे
आदमी के लिए ; ———–
दोनों ही निहायत जरुरी
दोनों का वशीकरण
————— जी — हुजूरी.

दोनों के मजे हैं ; अपनी तई
जुड़ी हैं दोनों से ही———–
………………बदनामियाँ कई.

सत्ता का पावर और
सुन्दरी का आफर
ललचाई निगाहों से तौलता है
उसका ईमान हर बार डोलता है
उसे पाने की लालच में
आदमी! हमेशा ————
“कुत्ते की भाषा” बोलता है.

सत्ता और सुन्दरी दोनों का
नशा है
:आदमी ; किससे बचा है ?

सत्ता का नशा ———-
सिर चढकर बोलता है
अदना नेता ————-
कीर्तिमान तोडता है;

सुन्दरी ——–शर्माती है
पहलू ग….र्मा….ती है
आदमी को; “आम ” से
: “खास” ; बनाती है.

सत्ता और सुन्दरी
दोनों में अनूठा आकर्षण है
दोनों ही ” चिकने घडे हैं ”
शून्य प्रतिशत घर्षण है.

ये दोनों ही जब ; सड़कों पर आते हैं
देखनेवाले “भय ” अथवा “भाव” से
————— जड़ होकर रह जाते हैं .

सत्ता है तो;
कई सुन्दरियाँ
होंगी आसपास
और ; सुन्दरी ही तो
सत्ता के गलियारों तक
आपको ले जाने का
करती है ; सफल प्रयास .

सत्ता और सुन्दरी की
मात्र नामराशियाँ ही
एक नहीं हैं ———– (कुम्भ राशि)
सदियों से दोनों ही धाराएं
समानान्तर बही हैं .

इनका नशा————-
जब परवान चढता है
हर कोई सलाम करता है
और; जब उतरता है, दोस्त !
: आदमी ; बुरीतरह बिखरताहै

सत्ता और सुन्दरी
दबाब की परिस्थितियों में
बेहतर काम करते हैं ;
निरंकुश हो जायें अगर
तो; जीना हराम करते हैं .

सत्ता को चाहिए …………..
जोड ———– तोड में माहिर
: बाहुबलि ————-शातिर,
और; सुन्दरी को पैसा प्यारा है
यदि शक्तिभी है ; आपके पास
तो; उसका सर्वस्य हमारा है.

सत्ता के समन्दर में नहाकर : सुन्दरी
और “नमकीन” हो जाती है;
जब तक ” जवान है——–जापान है ”
परिपक्व होते ही—“चीन” हो जाती है.

सत्ता और सुन्दरी
दोनों ही प्रतिबिम्ब हैं
” नंगी व्यवस्था के—–
अश्लील प्रश्नचिन्ह हैं
लोकतंत्र है ; आ….ई….ना
—– बात समझ में आई ना !

शास्त्रोंने;सत्ताऔ सुन्दरीको
“प्रथम सेवक” — कहा है
मगर; सदियों का इतिहास
उठाकर देख लो ; आप !
इनके लिए हर युग में निरन्तर
: बेहिसाब लहू बहा है…….
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Responses

    1. आभार अजयजी।अपने आसपास का सच बहुत उद्वेलित् करता है।सत्ता की महत्वाकांक्षा किसतरह अपने साधन ढूंढ कर समाज को दूषित करती है—–इसकी बानगी है : यह कविता।

    1. आभार मित्र ! जिस निरंतरता से हमारा सामाजिक और सामासिक ह्वास हुआ है ; उससे दुगृना राजनीतिक और सांस्कृतिक पतन।कविता तो आईना ही होती है।अब चेहरा ही इतना घिनौना है तो कविता भला कहां तक विद्रुपता छुपा पायेगी।हम भी भला इस सच से कहां मुंह छुपा पाते हैं ?

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