अवनी हूँ मैं
अवनी हूँ मैं अंबर है तू ,
डूबू जो मैं संबल है तू ।
ये मन मेरा मन्दिर है जो
प्यारे प्रभु की मूरत है वो।
भटकू मैं क्यों इधर से उधर
मन में ही तो रहता है वो।
अकेली कहाँ क्यूँ डर मुझे
हरपल संग में रहता है वो।
अधूरी रहे क्यू ख्वाहिश मेरी
कहने से पहले पूर्ण करता है वो ।
अतिसुन्दर
सादर आभार कमला जी
Good
dhanybady
सुंदर
सादर आभार
धन्यवाद
बहुत ही सुन्दर बहन जी
बहुत ही सुन्दर बहन जी
सब उसमें हैं और वो सबमें
नित अपनों के प्यार को तरस रहा
सब उसके खिलौने में उलझे पड़े
कोई मन शायद कुम्भकार को तरस रहा
सादर आभार भाई
वाह,सुमन जी बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर, खूबसूरत अभिव्यक्ति
अच्छा है