“इक तारा आज फिर से टूटा बिखर गया”
इक तारा आज फिर से टूटा बिखर गया।
आसमान ने ये देखा वो फिर सिहर गया।।
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किसकी है ये खता की वो छोड़ आया घर।
या खुद की ही वजह से वो यूँ बिखर गया।।
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जब मंजिल ही नहीं फिर क्या थी जुस्तजू।
किसकी तलब में राही था लाखों शहर गया।।
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लो माना की आदमी को मुश्किल है मंजिले।
पर जिसनें खाई ठोकरें आखिर निखर गया।।
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तेरे शहर में हूँ मैं बस इतना सा ही है कसूर।
हम थे काफिले में ये काफिला जिधर गया।।
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मुसल्सल वक़्त की घड़ी है चलती जा रही।
साहिल को खुद पता नही वो क्यूँ ठहर गया।।
@@@@RK@@@@
Aajkal taaro se zada logo ke dil aur khwaab tutte hai
Sahi hai par aaj kal insaan bhi to itna mashruf hai khud mein ki aasman ki taraf dekh nahi pata
वाह
Good
वाह बहुत सुंदर
बेहतरीन सृजन