अच्छे से कट जाये।
मन के भीतर तक पहुँच गई,
ठंडक की ठंडी हवा
अब क्या हो इस ठिठुरन का हल
कुछ है क्या इसकी दवा।
होती तो मैं खा लेता,
सबको उसे खिला देता,
जितने भी मौसम होते हैं
उन सबमें खूब मजे लेता।
ठंडक में ठंड सताती है
गर्मी में बदन पसीने से
इतना तर हो जाता है
नींद नहीं आ पाती है।
ठंडा हो या गर्मी हो
या बरसात की नमी हो,
सब सह लेता यह शरीर
बन जाती कोई औषधि तो।
लेकिन हो तो वो सस्ती हो
जिसको गरीब भी खा पाये,
जीवन के कुछ पल उसके भी
जिससे अच्छे से कट जाये।
बहुत सुंदर लिखा है सर
चिकित्सक तो औषधि की ही बात करेंगे, वाह बहुत खूब कवि सतीश जी ने बहुत अच्छी औषधि की कल्पना की है और सहृदय कवि ने चाहा है कि वह औषधि दाम में भी कम हो, जिससे कि गरीब लोग भी उसका सेवन कर सकें। अद्भुत कल्पना, सुंदर कल्पना । इसी को तो कहते हैं जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि । बहुत सुंदर लेखन
बहुत सुंदर कल्पना
अतिसुंदर रचना
सुन्दर रचना
Bahut sundar sir, khubsurat rachana