आधुनिका नारी
नारी के नवोन्मेष पर
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चाँद ने पलकें उठा कर
देख तो लिया है अब~
पश्चिम से आते प्रकाश को, पर आधुनिका को यह स्वीकार्य नहीं है,
कि धरा पर रहने वाले लोग ,यह कहें
कि ‘उस पर गिरने वाली हर किरण
पूरब से आती है।’
और जब सांझ हो,
तो उसके कानों में गुनगुना जाती हैं :
‘अच्छा तो अब चलते हैं’
क्योंकि तब तक आधी धरा पर रहने वाले लोग
उसके कर्ण-पुट की गह्वर घाटी में
घोल जातें हैं, सुमधुर जीवन- संगीत
‘एक तुम ही हो,
एक तुम ही हो।’
प्रदीप कुमार अग्रवाल
मो-9082803377
आपकी कविता आधुनिक विधा में लिखी गई है और आपकी कविता की एक-एक पंक्ति में वजनता है.
आपका कोटिशः आभार कि आपने मेरी अभिव्यक्ति को सराहा।
नारी के प्रति लिखी आपकी कविता तारीफ़ ए क़ाबिल है।
आपका कोटिशः आभार कि आपने मेरी अभिव्यक्ति को सराहा।
Great
बहुत सुंदर प्रस्तुति
बहुत खूब
बेहतरीन सृजन👌👌