कालचक्र मौत का
पाबंदियों की धज्जियां उङाते, सीधे-सीधे संक्रमण को आमंत्रण देने निकल पङे ।
गजब की परिस्थितिया, चारों तरफ मंडराते मौत के बीच खुद को चुनौती देने निकल पङे ।
संकटकालीन दौर में जीते, मन बेचैन जिगर बेताब
जीने की लालसा, कैसे रखें फासला, हालात हैंखराब
अजीब सा भय लिए देखो सङक पर निकल पड़े ।
खुद पे लगी पाबंदी खुद ही हटाते चल दिए
पेट की आग ऐसी बढी, सवाल हैं कयी खङे
मौत के खौफ की धज्जियां उङाते निकल पङे ।
हमारे प्रतिनिधि का आचरण क्या अनुसरण योग्य है
खुद में मतान्ध वे कर रहे सत्ता का दुरूपयोग हैं
जनता के अंधत्व को हवा देने निकल पड़े ।
यह महामारी हमारी गलत क्रियाकलाप की देन है
बगैर भेदभाव के, गलत को दबोचने का यह खेल है
ग़लत है वही जो नियमों की अनदेखी कर निकल पड़े ।
अब भी सचेत हो कालचक्र की यह माँग है
अब तो नादानी छोङ दे जीवन का सवाल है
अनुशासन की खिल्ली उङाते क्यों निकल पङे ।
सटीक विश्लेषण सुन्दर कविता
चन्द्राजी सादर धन्यवाद
बहुत ही सुंदर और यथार्थपरक अभिव्यक्ति, जो घटित हो रहा है उस पर सफलता से प्रकाश डाला गया है। बहुत खूब।
बहुत सुंदर पंक्तियां
अतिसुंदर
NICE
बहुत खूब