पिता
किसी अनजान से बोझ से झुका झुका ये फल
दरख्त़ की झड़ों में ढूंढ़ता सुकून के चन्द पल।
कभी मिले पत्तों के नर्म साए
तो कभी इनमे छनकर आती कुछ सख्त़ किरणें भी।
बहुत रोया ये हर उस लम्हे
जब इस दरख्त़ को आम का पेड़ कहा किसने भी।
मुझे मिठास तब मिली जब इस दरख्त ने
आसमां से ज़मीं तक हर चीज़ को चखा।
गिरते पत्तों के बदलते रंग देखे
तो इस उंगली को उम्र भर थामे रखा।
मुझे न छुओ चाहे बनादो इन पत्तों के पत्तल
किसी अनजान से बोझ से झुका झुका ये फल…..
ये नीम का पत्ता बरसों से आज तक
मुझे अपने बोल तक समझा न सका।
और रात आंधी में मेरे कंधे आ बैठे इस कंकर से
मैं ज़मीन के राज़ उगलवा न सका।
कल एक पखेरू ने पास बैठ
मुझसे इस तरह झुकने का राज़ पुछा।
मैने कहा गिरने के बाद न मिले किसी महल की दावत
न किसी मंदिर की पूजा।
स्वर्ग तो मिले तब जब इन्ही झड़ों में जाएं पिघल।
किसी अनजान से बोझ से झुका झुका ये फल…..
सुंदर कृति
behatreen kavita
nice
Good
Good
वाह वाह
अतिसुंदर
Waah