भ्रूण हत्या

मेरा जिससे था प्रेम प्रसंग
वो रहता था हर पल मेरे संग
हम एक दूजे के साये थे
जन्मों बाद करीब आए थे..
वो हाथों में हाथ लिए बैठा था
बोला मुझसे विवाह रचा लो
मुझको अपना पति बना लो
मैं बोली विधाता को मंजूर नहीं
घर वालों को करूंगी मजबूर नहीं
तुम प्रेम हो मेरा यह तय है
तेरे दिल में ही मेरा घर है
पर भ्रूण हत्या का पाप
मुझसे ना हो पाएगा
तेरे वियोग में ही प्रियतम
मेरा यह जीवन जाएगा
वह चौंका उठकर खड़ा हुआ
कैसी भ्रूण हत्या यह प्रश्न किया
मैं बोली बेटा-बेटी हैं एक समान पर
बेटी से ही है परिवार का मान
दहेज देना नहीं खलता है
किसी माँ-बाप को
जब बेटी किसी संग चली जाती है
घरवालों की नाक कटाती है
उसी क्षण की खातिर हर दम्पति डरता है
बेटी पैदा होने से डरता है
मैं यदि तेरे संग विवाह रचाती हूँ
वंश की लाज ना बचाती हूँ
तो कोई भी दम्पति बेटी को कोख
में ही मार बैठेगा
मेरा परिवार लोकलाज के कारण
आत्म हत्या कर बैठेगा
एक तेरा प्यार पाने की खातिर मैं
माँ-बाप को जीतेजी ना मार पाऊँगी
बेवफा बन जाऊँगी पर भ्रूण हत्या का
पाप सिर ना ले पाऊँगी…

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Responses

  1. वाह प्रज्ञा आपने बहुत खूब लिखा है। आपने समाज में व्याप्त इस बुराई पर गंभीर चोट की है। लेखनी को सैल्यूट। इस पर मैं भी दो पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाह रहा हूँ—
    भ्रूण हत्या पाप है
    तू पाप का भागी न बन
    बाप है बेटी बचा ले
    बधिक अपराधी न बन।

  2. बहुत ही अच्छी कविता है
    जितनी भी तारीफ की जाए कम है ।
    बिलकुल सही तथ्यों को उजागर किया है मैम।

  3. अपनों के लिए, प्रेम का त्याग करना ही पड़ता है और एक लड़की के गलत फैसले से पूरे समाज की लड़कियों को उसका अन्जाम भुगतना पड़ता है,बहुत सुंदर भाव

  4. वाह,प्रज्ञा समाज k kuch कुत्सित विचारों के लोगों को सीख देती हुई बहुत शानदार रचना।

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