मेरा मन
किसी की सिसकियां सुनती थी अक्सर,
कोई दिखाई ना देता था।
देखा करती थी इधर-उधर,
व्याकुल हो उठती थी मैं,
लगता था थोड़ा सा डर।
एक दिन मेरा मन मुझसे बोला..
पहचान मुझे मैं ही रोता हूं,
अक्सर तेरे नयन भिगोता हूं।
मासूमों पर अत्याचार,
बुजुर्गों को दुत्कार,
वृद्धाश्रमों में बढ़ती भीड़,
नारियों की पीड़,
इन्हीं से दिल दुखी है
दुनिया में क्यों हो रहा है यह व्यवहार।
कब समाप्त होगा यह अत्याचार,
बस यही सोच-सोच कर हो जाता हूं दुखी,
कब तक होगा यह जग सुखी।।
____✍️गीता
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Satish Pandey - February 22, 2021, 2:03 pm
कवि गीता जी की इस कविता में उच्चस्तरीय संवेदना है। इतनी शानदार कविता है यह कि तारीफ में शब्द कम पड़ रहे हैं। संवेदना औऱ शिल्प का अदभुत समन्वय है। भाषा जनोन्मुखी है। वाह वाह, एक श्रेष्ठ कवि की श्रेष्ठ कविता।
Geeta kumari - February 22, 2021, 6:23 pm
इतनी सुन्दर और प्रेरणा दायक समीक्षा हेतु हार्दिक आभार सतीश जी,अभिवादन सर 🙏
Pt, vinay shastri 'vinaychand' - February 22, 2021, 7:31 pm
अत्यन्त, सुंदर भाव
Geeta kumari - February 22, 2021, 7:48 pm
बहुत-बहुत आभार भाई जी सादर धन्यवाद 🙏
Rakesh Saxena - February 23, 2021, 3:25 pm
बहुत सुंदर रचना
Geeta kumari - February 23, 2021, 4:28 pm
बहुत-बहुत धन्यवाद सर आपका 🙏
Rakesh Saxena - February 23, 2021, 3:25 pm
बहुत सुंदर रचना