मेरा मन
किसी की सिसकियां सुनती थी अक्सर,
कोई दिखाई ना देता था।
देखा करती थी इधर-उधर,
व्याकुल हो उठती थी मैं,
लगता था थोड़ा सा डर।
एक दिन मेरा मन मुझसे बोला..
पहचान मुझे मैं ही रोता हूं,
अक्सर तेरे नयन भिगोता हूं।
मासूमों पर अत्याचार,
बुजुर्गों को दुत्कार,
वृद्धाश्रमों में बढ़ती भीड़,
नारियों की पीड़,
इन्हीं से दिल दुखी है
दुनिया में क्यों हो रहा है यह व्यवहार।
कब समाप्त होगा यह अत्याचार,
बस यही सोच-सोच कर हो जाता हूं दुखी,
कब तक होगा यह जग सुखी।।
____✍️गीता
कवि गीता जी की इस कविता में उच्चस्तरीय संवेदना है। इतनी शानदार कविता है यह कि तारीफ में शब्द कम पड़ रहे हैं। संवेदना औऱ शिल्प का अदभुत समन्वय है। भाषा जनोन्मुखी है। वाह वाह, एक श्रेष्ठ कवि की श्रेष्ठ कविता।
इतनी सुन्दर और प्रेरणा दायक समीक्षा हेतु हार्दिक आभार सतीश जी,अभिवादन सर 🙏
अत्यन्त, सुंदर भाव
बहुत-बहुत आभार भाई जी सादर धन्यवाद 🙏
बहुत सुंदर रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद सर आपका 🙏
बहुत सुंदर रचना
किसी की सिसकियां सुनती थी अक्सर,
कोई दिखाई ना देता था।
देखा करती थी इधर-उधर,
व्याकुल हो उठती थी मैं,
लगता था थोड़ा सा डर।
एक दिन मेरा मन मुझसे बोला..
अपने मन की व्यथा सुनाती कवि गीता जी की शानदार रचना