“मैं हलधर हूँ कहलाता”
नाखूनों से नोंच जमीं
मैंने बोया है
मेहनत का बीज
हलधर हूँ कहलाता
चाहे कह लो
पीर-फकीर
पीता हूँ कुआं खोदकर पानी
बीती निर्धनता में जवानी
पर अपनी मेहनत से
भरता हूँ
मैं सबका पेट
आज मुसीबत
आन पड़ी
हक पे अपनी बात अड़ी
‘भारत बंद है’ तो क्या हुआ ?
कुएं में अभी भी भांग पड़ी
जो होना होगा सह लेंगे
छीन के अपना हक लेंगे
खोदेंगे हम सूखी जमीं
अश्रुओं से अपने सींचेंगे
जो लेकर चाँदी का चम्मच
पैदा हुए हैं राजकुमार
वह हम क्षेत्रपाल की
व्यथा को क्या समझेंगे..!!
अतिसुंदर रचना
धन्यवाद
सुन्दर अभिव्यक्ति
धन्यवाद
बहुत सुंदर चित्रण।
धन्यवाद