रास्ता हूँ मैं
रास्ता हूँ मैं
युगों युगों से
लोग चलते आये हैं मुझ पर
न जाने कितने पदचापों की
ध्वनि को मैंने सुना है।
न जाने कितनों ने
चल कर मुझ पर सपनों को बुना है,
लोग आते रहे, जाते रहे
नए उगते रहे
पुराने विलीन होते रहे,
आने और जाने का गवाह हूँ मैं
चलती जिन्दगी का प्रवाह हूँ मैं
मैं देखता रहता हूँ
आते-जाते अस्थिर मानवों को
बनती बिगड़ती चाहतों को,
हर तरह की आहटों को।
उनका आना-जाना लगा रहा
मैं स्थिर रहा,
आने पर खुशी और
जाने पर आँसू बहता रहा
पदतलों से दबते-दबते
ठोस बनता रहा,
वे मुझे निर्जीव समझते रहे
मैं उन्हें अस्थिर समझता रहा।
आने और जाने का गवाह हूँ मैं
चलती जिन्दगी का प्रवाह हूँ मैं
____रास्ते का मानवीकरण बहुत ही खूबसूरती से किया है सतीश जी आपने।……”आने पर खुशी और जाने पर आँसू बहता रहा
पदतलों से दबते-दबते ठोस बनता रहा,’ बहुत सुंदर शिल्प,कथ्य और ख़ूबसूरत भावनाओं के साथ बेहतर प्रस्तुति। उम्दा लेखन
बहुत खूब सर
“.वे मुझे निर्जीव समझते रहे
मैं उन्हें अस्थिर समझता रहा।”
वाह वाह क्या बात है पाण्डेयजी। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर लिखा