ग़ज़ल
२१२२ १२१२ २२
अपने ही क़ौल से मुकर जाऊँ ।
इससे बेहतर है खुद में (खुद ही) मर जाऊँ ।।
तू मेरी रूह की हिफ़ाजत है ;
बिन तेरे जाऊँ तो किधर जाऊँ ।
तेरी साँसों को ओढ़कर हमदम ;
जिस्म से रूह तक सँवर जाऊँ ।
इश्क में हद तो पार तब हो जब ;
जिस्म से रूह सा गुजर जाऊँ ।
यूँ तो कतरा हूँ तुम छुओ गर तो ;
इक समन्दर सा मैं भी भर जाऊँ ।
जिस्म को लाद कर चलूँ कब तक ?
दिल तो करता है अब ठहर जाऊँ ।
तुमको पाना हो तब मुकम्मल जब ;
जिस्म में साये सा उतर जाऊँ ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’
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Kavi Manohar - August 16, 2016, 8:37 pm
Nice
देव कुमार - August 17, 2016, 12:46 pm
NIce
anupriya sharma - August 20, 2016, 1:28 pm
nice poem…beautifully expressed 🙂
महेश गुप्ता जौनपुरी - October 17, 2019, 7:27 pm
वाह बहुत सुंदर
राम नरेशपुरवाला - October 28, 2019, 12:45 pm
Wah