वृक्ष की व्यथा
धरती जल रही अम्बर जल रहा
जल रहा सकल जहान ।
हाल कहे क्या पशु-पक्षियों के
हैं व्याकुल सब इन्सान ।।
सघन छाँव करके मैं तरूवर
सबको पास बुलाया ।
खुद जलकर सूरज किरणों से
सब की जान बचाया ।।
खाया पीया बैठ यहाँ पर
सब भागे जल के भीतर ।
छम-छम छप-छप छपाक -छप-छप
केहरि मृग अहिगण और तीतर ।।
मस्त मगन हो नहा रहे सब
पशु पक्षी संग-संग इन्सान ।
‘विनयचंद’ कोई मुझे भी ले चल
बीच दरिया में करूँ स्नान ।।
सुंदर रचना
Thanks
nice
Thanks
Sundar Abhivyakti
Thanks
Nyc
सुंदर परंतु पंक्तियाँ कुछ उलट पलट हैं। अर्थात् तुकान्त के चक्कर में अपनी पहचान खो रही हैं
बेहतरीन
बहुत खूब,
बहुत सुंदर पंक्तियां