अभिलाषा
ये सृष्टि हर क्षण अग्रसर है
विनाश की ओर…
स्वार्थ, वासना और वैमनस्य की बदली
निगल रही हैं विवेक के सूर्य को..!!
सुनो! जब दिन प्रतिदिन घटित होतीं
वीभत्स त्रासदियाँ मिटा देंगी मानवता को
जब पृथ्वी परिवर्तित हो जाएगी असंख्य
चेतनाशून्य शरीरों की भीड़ में…!!
जब अपने चरम पर होगी पाशविकता
और अंतिम साँसे ले रहा होगा प्रेम…
जब जीने से अधिक सुखकर लगेगा
मृत्यु का आलिंगन…!!
तब विनाश के उन क्षणों में भी तुम्हारी
उँगलियों का मेरी उँगलियों में उलझना,
पर्याप्त होगा मुझमें जीने की उत्कण्ठ
अभिलाषा जगाये रखने के लिए..!!
©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’
(23/01/2021)
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Satish Pandey - January 24, 2021, 7:53 am
ये सृष्टि हर क्षण अग्रसर है
विनाश की ओर…
स्वार्थ, वासना और वैमनस्य की बदली
निगल रही हैं विवेक के सूर्य को..!!
——- बहुत सुंदर पंक्तियाँ, बहुत सुन्दर रचना
अनुवाद - January 24, 2021, 1:21 pm
धन्यवाद सर
Geeta kumari - January 24, 2021, 10:35 am
तब विनाश के उन क्षणों में भी तुम्हारी
उँगलियों का मेरी उँगलियों में उलझना,
पर्याप्त होगा मुझमें जीने की उत्कण्ठ
अभिलाषा जगाये रखने के लिए..!!
___रूह की गहराइयों की मोहब्बत दिखाती हुई कवियित्री अनु उर्मिल जी की बेहद शानदार प्रस्तुति। बहुत उत्कृष्ट रचना
अनुवाद - January 24, 2021, 1:22 pm
धन्यवाद गीता जी
Pt, vinay shastri 'vinaychand' - January 25, 2021, 8:23 am
बहुत खूब
vikash kumar - February 12, 2021, 6:47 pm
Jay ram jee ki