खुद में खुदा
कतरा -ए-आब लपक लेते हैं सभी
भरे समन्दर को कोई चुराया है क्या ?
पकड़ के कबूतर उड़ा लेते हैं सभी
कोई बाजों को आखिर उड़ाया है क्या?
जलक्रीड़ा करे कोई बर्फों से खेले
आग से भी कोई आखिर खेला है क्या?
एक निर्बल के आगे सभी शेर हैं
कोई बलवानों को आखिर धकेला है क्या?
ऐ ‘विनयचंद ‘ कभी न तू निर्बल बनो
जब खुद में खुदा फिर तू अकेला है क्या?
वाह बहुत खूब, अतिसुन्दर रचना
“जब खुद में खुदा फिर तू अकेला है क्या?”
वाह भाई जी बहुत ही उत्साह वर्धक पंक्तियां, बहुत सुन्दर रचना
Beautiful
उत्तम भाव प्रधान रचना
परंतु तुकांत में कुछ ढीलापन नजर आया