Pragya
चीनी सामान
June 18, 2020 in Other
जिस तरह अंग्रजों के सामान को और
उन्हें बहिष्कृत किया था।
उसी प्रकार चीनी सामान को
अपने जीवन से दूर करो।
और आत्मनिर्भर बनो।
अपनी दैनिक आवश्यकताओं का
सामान खुद ही देश में बनाओ।
चीनी सामान का बहिष्कार करो
June 18, 2020 in Other
चीनी सामान का बहिष्कार करो
इसे अपने जीवन से दूर करो
सरकार ने यह निर्णय लिया है
आप भी यह निर्णय लेकर
देश भक्ति की भावना दिखाओ।
क्यूँ तूने छुड़ा लिया दामन??
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
सैनिक के शव से बोली उसकी
पत्नी:-
माँग सूनी रह गई
क्यूँ तूने छुड़ा लिया दामन?
अभी-अभी तो
रूह जुड़ी थी।
क्यूँ तूने छुड़ा लिया दामन?
अभी-अभी तो साथ
चले थे।
क्यूँ तूने छुड़ा लिया दामन?
भारत माँ विपदा में पड़ी
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
भारत माँ की खातिर
कितनी माताओं की
कोख उजड़ी।
भारत माँ विपदा में पड़ी।
हर गली में पसरा सन्नाटा
हर चौखट सूनी पड़ी।
भारत माँ विपदा में पड़ी।
किस किस को खोकर
रोये धरती
यही सोंचे
घड़ी-घड़ी
भारत माँ विपदा में पड़ी।
एक सैनिक ऐसा भी होगा!
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
एक सैनिक ऐसा भी होगा!
जिसनें प्रेम किया होगा
अपने प्रेम का इजहार किया होगा!
जब आया होगा छुट्टी पर
तो यह वादा किया होगा।
अगली बार जब आऊँगा
तुझको ही प्रिया बनाऊँगा ।
इस बार मिली है कम छुट्टी
अगली बार लम्बी लेकर आऊँगा ।
तेरे घरवालों से तेरी खातिर लड़ जाऊँगा ।
वादा करता हूँ तुझसे
मैं जल्दी घर आऊँगा।
तुझको ही प्रिया बनाऊँगा।
तेरे हाथों में मेहंदी होगी
सिर पर चूनर ओढे होगी
मैं तेरी सिन्दूर से माँग सजाऊँगा।
जब अगली छुट्टी आऊंगा।
वादा है मेरा मैं जल्दी घर आऊँगा।
हर गली रुदन करती है
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
कितना कष्ट होता है जब
एक सैनिक शहीद होता है ।
पूरा देश रोता है ।
हर गली रुदन करती है ।
एक अशांत-सी पीड़ा
मन में घर करती है ।
रोती है धरती जब
मृत सैनिक को गोद में
लेती है ।
अग्नि भी गर्मी कम करके
शोक प्रकट
करती है ।
जिस जगह से गुजरता है
जनाजा वह
गली रुदन करती है।
माँ की छाती में दूध उतरता है
जब बेटे की अर्थी आती है।
पत्नी छाती पीट पीटकर
बेसुध होती जाती है ।
मेरी कलम रोती है जब
किसी सैनिक के
शहीद होने की खबर पाती है।
उस कोख को क्या कहूँ जो
सीमा पार उजड़ जाती है ।
बाप किस तरह कन्धा
देता है जिसकी
वेदना और
स्थिति पर ‘प्रज्ञा की कलम’
नि:शब्द हो जाती है।
कितनों ने जान गँवाई
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
हाय कितनों ने जान गँवाई!
उस चीन ने जमीन के टुकड़े की खातिर
कर दी नीच-सी हरकत ।
खुद मरा
और मेरे प्यारे देशभक्त सैनिकों ने भी
वीरगति पाई ।
हाय कितनों ने जान गँवाई!
आपसे अनुरोध है🙏🙏
June 18, 2020 in Other
आप एक बार अपने नियमों में बदलाव कीजिये ।
दुश्मन पर वार करने का फैसला,
सेना के विवेक पर छोड़िए।
उसे पाकिस्तान की तरह आजाद कर दीजिये।
🙏🙏🙏आपसे अनुरोध है इसमें राजनीति मत कीजिये।
शहादत पर आँसू
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
क्यूँ नहीं देती है सरकार सैनिकों को
दुश्मन को सीधे गोली मारने की आजादी?
वो बस राह देखते हैं आदेश की और खाते रहते हैं
सीने पर गोली।
उनकी शहादत पर हम कब तक बहायें आँसू?
सुहागिने कब तक अपना सन्दूर खोएं?
उन्हें एक बार अपनी राजनीति से मुक्त करो
फिर देखो कैसे
चीन की गर्मी निकलती है
और हिन्दुस्तान से सबकी नज़र हटती है ।
यह कैसे अच्छे दिन??
June 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
यह कैसे अच्छे दिन आए हैं?
एक तरफ कोरोना मानव को
निगलने पर तैयार खड़ा है।
दूसरी ओर सीमा पार दुश्मन खड़ा है।
इस महामारी को देखकर भी,
चीन का पेट नहीं भरा है।
इसीलिए तो वह सीमा पर बंदूक लिए खड़ा है।
नादान बचपन:-कहाँ गई वो गुड़िया
June 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
याद आती हैं वो बचपन की बातें
जब पापा के हाथों से
चोटी करवाती थी।
माँ लोरी गाकर सुलाती थी।
कहाँ गई वो बचपन गुड़िया ?
जिसकी शादी मैं रोज़ कराती थी।
बाबा की भजन संध्या में
मैं ही आरती सुनाती थी ।
भाईयों से रोज़ का झगड़ा
और माँ से खफ़ा हो जाती थी।
तुम बेटों को ही प्रेम करती हो
पापा की दुलारी बन जाती थी।
कहाँ गई वो बचपन की गुड़िया?
जिसकी शादी मैं रोज कराती थी।
कागज़ की नाव पर बैठकर
दुनिया की सैर हो जाती थी।
कहां गई वो बचपन की गुड़िया ?
जिसकी शादी मैं रोज कराती थी।
दादी बात-बात पर डाटती थी
उन्हें देखकर मैं पुस्तक खोल
पढ़ने बैठ जाती थी।
कहां गई वो बचपन की गुड़िया?
जिसकी शादी मैं रोज कराती थी।
मेले से हर बार मैं
चश्मा खरीद लाती थी।
भईया के तोड़ने पर
पापा से मार खिलाती थी।
कहां गई वो बचपन की गुड़िया?
जिसकी शादी मैं रोज कराती थी।
यही कुछ निशानियाँ हैं मेरे पास
‘नादान बचपन’ की
जब नानी के घर जाती थी।
जब माँ जबरन मुझे खिलाती थी।
कहाँ गई वो बचपन की गुड़िया?
जिसकी शादी मैं रोज कराती थी।
‘नजरों को बस’….
June 8, 2020 in शेर-ओ-शायरी
नजरों को बस तेरी ही तलाश रहती है
सुकून भी बस तेरे ही साथ आता है,
मुलाकात भले ही ना होती हो हमारी
पर सारा वक्त तेरी याद में गुजरता है।
जुबां जो कह नहीं सकती..
June 8, 2020 in ग़ज़ल
जुबां जो कह नहीं सकती
आंखें वो राज़ कहती हैं।
दिल में जो कुछ भी चलता है
धड़कनें आवाज करती हैं ।
लगाए लाख भी पहरे
दिलों पर चाहे जमाना,
मोहब्बत तोड़कर पहरे
दिल को आजाद करती है।
मिले ना दुनिया की शोहरत
सच्चा दिलदार मिल जाए।
जहां में प्यार की दौलत ही
सच में आबाद करती है।
किसी को टूट कर चाहो
अगर वो छोड़ दे दामन,
एक तरफा मोहब्बत ही ‘प्रज्ञा’
जलाकर खाक करती है।
“खिड़कियों से झांकती आँखें”
June 7, 2020 in Poetry on Picture Contest
कितनी बेबस हैं लोह-पथ-गामिनी (रेलगाड़ी)
की खिड़कियों से झांकती 👁आंखें।
इन आंखों में अनगिनत प्रश्न उपस्थित हैं।
कितनी आशाएं कीर्तिमान हो रही हैं ।
अपने परिजनों से मिलन की उत्सुकता
ह्रदय को अधीर कर रही है।
परंतु कोरोना महामारी का भय
यह सोचने पर मजबूर कर रहा है,
कि कहीं अपने परिजनों को हम
भेंट स्वरूप कोरोना महामारी तो
प्रदान नहीं कर रहे?
यह बात लोह-पथ-गामिनी के इन
सहयात्रियों को व्यथित कर रही है।
मुख पर लगा मुखौटा(मास्क),
इंनकी इस धारणा को बखूबी प्रदर्शित कर रहा है।
इन श्रमिकों, प्रवासी मजदूरों को
इस बात की अत्यंत खुशी है
कि एक अर्से के बाद
जिस रोटी की तलाश में वो परदेस गए थे।
आज उसी रोटी की अभिलाषा में
अपने गंतव्य प्रस्थान करेंगे।
रूखी सूखी खाकर ही,
अपनी जठराग्नि को शांत करेंगे।
“मजबूरी में मजदूरी की
मजबूरी में घर से निकले।
आज फिर मजबूरी में
मजदूरी छोड़ प्रवासी पहुंचेंगे।।”
“कभी यूं भी आ”!!
June 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
गज़ल =”कभी यूं भी आ”
——————————–
कभी यूं भी आ मेरी आंख में
मेरी नजर को खबर ना हो,
मुझे एक रात नवाज दे कि
फिर ‘शहर'(सुबह) ना।
अंशुमाली में तेरी ही आरजू रहती है
मिल जाए जन्नत की उम्र हुकूमत,
फिर भी तेरी ही आरजू रहती है।
कभी यूं भी आ मेरी आंख में,
मेरे अपनों को खबर ना हो।
मुझे एक रात नवाज दे,
कि फिर शहर (सुबह) ना।
दास्तान ए मोहब्बत जब भी
सुनाती हूं किसी को,
सबकी आंखों में एक चमक
दिखाई देती है।
कोई देख ना ले तुझे मेरी आंखों में,
बस यही बात खटकती है।
कभी यूं भी आ मेरी आंख में कि,
मेरे सपनों को खबर ना हो।
मुझे एक रात नवाज दे कि,
फिर शहर (सुबह) ना हो।
चिपको आंदोलन 1970
June 5, 2020 in लघुकथा
चिपको आन्दोलन की शुरुआत 1970
में सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी,
कल्याण सिंह रावत पर्यावरणविद ने की।
वन विभाग के अधिकारियों को 2400 से अधिक
पेड़ काटने के आदेश पर खदेड़ा।
इसकी शुरुआत तत्कालीन ‘चमोली जिले’ से हुई ।
फिर धीरे-धीरे पूरे उत्तराखंड में फैल गई
इस की सबसे बड़ी बात यह थी
कि इसमें स्त्रियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था
और अपनी जान जोखिम में डालकर राज्य के वन अधिकारियों को पेड़ कटाई पर विरोध किया।
और पेड़ों पर अपना परंपरागत अधिकार जताया।
आज पर्यावरण दिवस पर हम ‘चिपको आंदोलन ‘की
इस घटना को कैसे भूल सकते हैं?
पेड़ हमारे लिए वास्तव में हमारे जीवन का आधार है
जो हमारे जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं को
पूरा करते हैं।
और हमें बहुत सी जड़ी बूटियां, लकड़ियां और जरूरत के सामान उपलब्ध कराते हैं।
हमें इन्हें नहीं काटना चाहिए।
बल्कि हमें उनके हो रहे अंधाधुंध कटाई को रोकना चाहिए।
और संकल्प लेना चाहिए कि वृक्षारोपण करेंगे और उनकी
रक्षा भी करेंगे।
आप सभी को पर्यावरण दिवस की
हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏🙏
कवयित्री:- प्रज्ञा शुक्ला
याद हैं वो गुजरे जमाने!!
June 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
याद हैं वो गुजरे जमाने
तुमको?
जब प्रीत से बढ़कर
और कुछ भी न था।
याद हैं वो गुलिस्ता मुझको
जहाँ तेरे और मेरे सिवा
कुछ भी न था।
कुछ दूर खड़े तुम थे
कुछ दूर खड़े हम थे,
याद है क्या तुमको
मेरी बाँहों में आना?
आज़ादियां कहां अब
तेरे मेरे मिलन की,
तेरा नज़र उठाना
मेरा नज़र झुकाना।
बरसात की वो बूंदें
और तेरा भीग जाना,
तेरे ही दम से खुश था
मेरे दिल का आशियाना।
ज़िन्दगी के भंवर में….
June 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
किस्मत से डरी हुई हूँ मैं
ज़िन्दगी के भंवर में
फंसी हुई हूँ मैं ….
तेरी स्मृतियों की दासी हूँ
हालतों की दुविधा से
सहमी हुई हूँ मैं …..
गमों की आंधियों ने
झकझोर दिया है जीवन
याद ही नहीं है मुझे
आखरी बार कब हँसी हूँ मैं?….
मेरे परिजनों ने खुद से
बाँधे रखा है मुझको
पता ही नहीं चला
कब बड़ी हुई हूँ मैं….
दरख्तों सी ज़िन्दगी…
June 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
🌴🌴दरख्तों सी है ज़िन्दगी अपनी🌴🌴
कभी हर साख पर हैं पत्तियां
टूटती….लहराती….
और मिट्टी में मिल जाती….
कभी हर शाख पर गुल खिलता है
कभी दरख्ता वीरान सा नज़र आता है
जिसकी हर एक शाख मृत है……
🍁🍁🍁🍁🍁
बसंत ऋतु आते ही जिसकी हर शाख
पत्तियों से हरी-भरी हो जाती है
जीवंत हो उठता है दरख़्ते का जर्रा जर्रा
जैसें यौवन अंगड़ाइयां ले रहा हो…..
पतझड़ आते ही मानो किसी ने
लूट लिया हो, किसी सुंदरी के अलंकारों को
और विरह की वेदना में व्यथित होकर
वह साज श्रृंगार करना छोड़ चुकी हो….
🌹🌹ऐसी ही है जिंदगी “प्रज्ञा”🌹🌹
जो कभी फूल के जैसे खिल उठती हैं
तो कभी काँटो-सी सूख जाया करती है…..
🌲🌲दरख़्तों सी जिंदगी🌲🌲
June 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
🌴🌴दरख्तों सी है ज़िन्दगी अपनी🌴🌴
कभी हर साख पर हैं पत्तियां
टूटती….लहराती….
और मिट्टी में मिल जाती….
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
कभी हर शाख पर गुल खिलता है
कभी हर शाख वीरान सी नज़र आती है
जिसकी हर एक शाख मृत है……
🍁🍁🍁🍁🍁
🌲🌲बसंत ऋतु आते ही जिसकी हर शाख🌲🌲
पत्तियों से हरी-भरी हो जाती है
जीवंत हो उठता है दरख़्ते का जर्रा जर्रा
जैसें यौवन अंगड़ाइयां ले रहा हो…..
💃💃💃💃💃💃💃
पतझड़ आते ही मानो किसी ने
लूट लिया हो, किसी सुंदरी के अलंकारों को
और विरह की वेदना में व्यथित होकर
वह साज श्रृंगार करना छोड़ चुकी हो…..
🧟♀️🧟♀️🧟♀️🧟♀️🧟♀️🧟♀️🧟♀️
🌹🌹ऐसी ही है जिंदगी “प्रज्ञा”🌹🌹
जो कभी फूल के जैसे खिल उठती हैं
तो कभी काँटो-सी सूख जाया करती है…..
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“रिश्तों की पौध”
June 2, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
तुम्हारी हर एक बात सही है….
वक्त का पता तो चलता ही नहीं है
अपनों के साथ,
पर अपनों का पता चल जाता है वक्त के साथ।
मगर ए हमदम!
अपनों के प्रति ऐसी संवेदनाएं रखना,
अच्छी बात नहीं होती।
अपनों को अपना बनाने के लिए,
प्रेम की रसधार से सीचना पड़ता है।
“रिश्तों की पौध”को।।
इज़्ज़त
June 1, 2020 in शेर-ओ-शायरी
बड़ों की इज़्ज़त करने से इज़्ज़त कम नहीं होती,
बल्कि कई गुना बढ़ जाती है।
आंसुओं की कसम
June 1, 2020 in शेर-ओ-शायरी
हर तरफ तेरी याद का दर्द गहरा है
ना जाने किस बात पर ये दिल ठहरा है,
तेरी आँखों में ठहरे आंसुओं की कसम
ए दोस्त! ये दर्द का रिश्ता बहुत ही गहरा है।
अधूरी सी नज़्म
May 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
गीत बनकर तुम्हारी जिंदगी में आई थी
एक रोज ……..
गजल बनकर तुम्हारी
ज़िंदगी बन गई।
और रुबाई बनकर
आंखें भिगोई तुम्हारी…
एक दिन ख्वाब बनकर तुम्हारे
सपनों के खटखटाने लगी दरवाजे
और जगाने लगी तुम्हें रातों को….
नींद में भी तुम मुझे ही ढूंढते थे
और मेरे ही खयालों में खोए रहते थे….
पर न जाने किसकी नजर
हमारे प्यार को लग गई?
तुम तुम ना रहे और
हमारी जरूरत भी ना रही…
और मैं अधूरी सी एक नज़्म
बनकर रह गई….
तारीफ न सही
May 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
तारीफ़ न सही तो
आलोचना ही कर दिया करो,
गर हो गये हो गूंगे तो
इशारा ही कर दिया करो।
सयाने बनकर देखते हो
तुम चलन सारे जमाने का …
गर चुप ही रहना है
तो निगाहें नीची कर लिया करो।
मैं हर बात समझती हूं
May 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
मैं हर बात समझती हूं
दिमाग की थोड़ी कच्ची हूं
नादानियां कूट-कूट कर भरी है मुझमें
फिर भी दिल की अच्छी हूँ
मैं हर बात समझती हूं
कल्पनाओं में विचरण करती हूं
खट्टे मीठे सपनों में खोई रहती हूं
फिर भी मैं हर बात समझती हूं।
इश्क के दो पन्ने
May 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
इश्क के दो पन्ने मैं भी लिखूंगी
तुम्हारी याद में रात भर मैं भी जागूंगी।
——————————
प्रीत की चादर ओढ़ कर
अंबर के तले,
तेरे सपने मैं भी बुनूँगी
इश्क के दो पन्ने मैं भी लिखूंगी।
—————————-
कल्पना के दरिया में तैर कर
रेत का चंदन बदन पर,
मैं भी मलूंगी
इश्क के दो पन्ने मैं भी लिखूंगी।
——————————–
तुम से हार जाऊंगी
उसी को जीत मानूंगी,
तुम्हारी जीत में ही
मैं खुद को विजयी बनाऊंगी
इस तरह इश्क के दो पन्ने मैं भी लिखूंगी।
क्या कहूँ!! ओ ज़ालिम
May 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
क्या कहूँ!!
दिल में कितनी उदासी छाई है,
तेरी बेरुखी मेरी जान पर बन आयी है।
————————————
मैं एक गुमशुदा सी शाम हूँ और,
तू मेरी रुसवाई है।
——-‐———–‐—————-
इन तूफानों के आगे,
दिल में मीलों की खाईं है।
————————————
समझ नहीं पाती हूँ मैं कभी-कभी,
ये तेरी मोहब्बत है या बेवफाई है।
————————————-
मेरे अश्कों से तेरा दिल नहीं पिघलता,
ओ ज़ालिम! तू कितना हरजाई है।
————————————–
”मेरा भोला प्रियतम”
May 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
”मेरा भोला प्रियतम”
जिनकी नज़रों से ललित कलाएं निकलती हैं,
अधरों पर राग अंगड़ाइयां लेते हैं।
केशों से बसंत दुग्ध पान करती है,
और रात अठखेलियां करती है जिनसे।
जिनकी एक चितवन मात्र से,
बिजलियां चमकने लगती हैं ।
अनगिनत दीप जल उठते हैं,
जिनके लावण्य की माधुरी से ।
विस्मय हो उठती हैं किरणें,
जिनकी अगाध छटा से।
प्रकृति मांगती है सौंदर्य जिनसे
ऐसा है ‘मेरा भोला प्रियतम’ ।
दादी माँ
May 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
आज दादी की बहुत याद आई!
वो बेचैन आत्मा ना जाने कहाँ
घूमती होगी….
ब्रह्मांड के किन कोनों से
गुजरती होगी…
कोई नहीं जानता…
जब मैं भूखी होती थी
तो दादी मां अपने हाथों से
खाना बनाती थी…
और पूरे परिवार को
हंसी-खुशी खिलाती थी…
वह दादी मां
आज बहुत याद आ रही है…
न जाने कहां ब्रह्मांड के किन
कोनों से टकराकर…
गुजरती होगी उसकी आत्मा
न जाने कहां होगी मेरी दादी मां..
शायद मुझे देख रही होगी..
और मुझे सुन रही होगी..
किसने कितना फ़र्ज निभाया ??
May 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
किसने कितना फ़र्ज निभाया,
किसने कितने पत्थर फेंके…
हमने इस कठिनाई के दौर में,
लोगों के असली चेहरे देखे…
डॉक्टर,पुलिस और सफ़ाईकर्मियों में
जीवन्त मानवता के लक्षण देखे…
इस बुरे वक्त के अविस्मरणीय पलों में
हमने सुर-असुरों में भेद है देखे….!!
सुनो गाँव ! अब परदेश ना जाना
May 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
आयी विपदा न कोई सहाय हुआ
छूटा रोजगार बहुत बुरा हाल हुआ
तुम्हारा कष्ट भी किसी ने न जाना
पसीने से सींचा जिन शहरों को…
किसी ने तनिक एहसान न माना
सुनो लला!अब परदेश न जाना।।
छोड़ आये थे तुम जिसे एक दिन
आयी फिर उस गाँव-घर की याद
पश्चाताप की इस कठिन घड़ी में
न ही तेरा कोई हुआ सहाय…
गाँव का सफ़र पैदल पड़ा नापना
सुनो लला!अब परदेश न जाना।।
तुम गाँव मे रहकर मेहनत खूब कर लेना
परिवार का भरण पोषण भी कर लेना
मन हो भ्रमित तो याद फिर…
खूब उन विपदा के पलों को कर लेना
सुनो लला!अब परदेश न जाना।
सुनो गाँव!अब परदेश न जाना।।
चितेरा
May 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
ज़िन्दगी की राहों का
है ये कौन चितेरा,
धूमिल -धूमिल गलियारों में
है करता कौन सवेरा।
घनघोर घटा से केशों
पर डोले मुग्ध पपीहा,
किसने उपवन रंगीन किया
है ये कौन चितेरा।
अलि मंडराते पुष्पों पर
है किसने रंग बिखेरा,
रति के यौवन से भी सुंदर
लगता है आज सवेरा।
विरह की वेदना से जलता है
‘प्रज्ञा’ का जीवन डेरा,
अब हर रात अमावस की
मुट्ठी में बंद सवेरा।।
कवयित्री:-
प्रज्ञा शुक्ला
द्रोपदी
May 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
जिसका जन्म हुआ यज्ञ
की प्रज्वलित अग्नि से
जो द्रुपद की पुत्री कहलाई
फूलों की नर्म सेज पर सोई
एक दिन हुई पराई
जिसके स्वयंवर में स्वयं
कृष्ण जी आये
वनवासी अर्जुन ही
मछली की आँख भेद पाये
अति सुन्दर द्रोपदी को लेकर
कुन्ती के पास ले आये
कुन्ती की आज्ञा से द्रोपदी
पाँच भाईयों की भार्या हो गई
और जगत में पान्चाली
कहलाई
जुये में पत्नी को हारे
धर्मराज युधिष्ठिर
सबके बीच में वह
अपमानित हुई बेचारी
कृष्ण जी ने एक-एक धागे
का मूल्य चुकाया
पाण्डु कुलवधू की
भरी सभा में लाज़ बचाई
अपमान का घूँट पीकर
द्रोपदी ने प्रतिज्ञा ली
नित खुले रहेगे केश
जब तक प्रतिशोध ना लूंगी
दु:शासन की छाती के
लहू से अपने
कलंकित केश धुलूँगी
नारी जाति की साहसी वीरांगना
थी द्रोपदी
जिसे महाभारत का उत्तरदाई
आज भी है ठहराया जाता
परंतु वह नारी तो
अति सम्माननीय थी
जो सदा घृणा से देखी जाती रही है ।
सावित्री वट पूजा
May 21, 2020 in अवधी
हे सखी! कौनी विधि पूजई जाई ।
सावित्री पूजा,कईसे पूजई जाई?
बरगद की डाढ़ मगाई या फिरी,
बरगद के नीचे जाई।
हे सखी! कौनी विधि पूजई जाई ।
चारि बजे ते पुलिस लागि हई ,
पूजा कईसे करि पाई।
हे सखी! कौनी विधि पूजई जाई ।
साज-श्रिगार सबई करि बईठेन ,
फेरा कईसे लगाई।
हे सखी! कौनी विधि पूजई जाई ।
इबादत
May 21, 2020 in शेर-ओ-शायरी
तेरी यादों में डूबी रहती हूँ ,
तेरे इश्क को ही मैं इबादत कहती हूँ ।
थोड़ी मोहलत
May 20, 2020 in शेर-ओ-शायरी
खुदा! अगर थोड़ी मोहलत
और दे मुझे तो
मेरी तकदीर में
कितनी मोहब्बत लिखी है
देखना चाहती हूँ मैं ।
कलम में स्याही
May 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
नि:शब्द हूँ निस्तेज मैं
मस्तिष्क के आवेश में
शब्द भारी पड़ रहे
कलम की स्याही से
नित यह कह रहे
ना उल्लिखित कर पाऊँगा
मैं तेरे भाव को
ना प्रकट मैं कर पाऊँगा
तो मैं क्यूँ लिखूं
मैं क्यूँ रखूँ अब
अपने कलम में स्याही??
जिनिगिया एगो खिलौनवा बा
May 20, 2020 in भोजपुरी कविता
जिनिगिया एगो खिलौनवा बा,
जेकरा से सबै खेलत बिया।
कौनो तड़पत बिया,
कौनो रूतल बिया।
जिनिगिया एगो खिलौनवा बा,
जेकरा से सबै खेलत बिया।
अंखियन के सपनवा ,
टूटल बिया।
जिनिगिया एगो खिलौनवा बा,
जेकरा से सबै खेलत बिया।
हमका देखि बोलीं भऊजी !!
May 19, 2020 in अवधी
सीतापुरिया अवधी बोली:-
हमका देखि बोलीं भऊजी
काहे नाई सोउती हऊ तुम ?
राति-राति भरि किटिपिटि-
किटिपिटि फोन म का
लिखती हउ तुम?
हम बोलेन ओ भाउजी !
थोरी-बारी कविता लिखा
करिति हन हम,
घर बाईठे ऑनलाइन
कपड़ा द्यखा करिति हन हम।
वइ बोलीं हमकउ
सिखाई देऊ हमहूं
कपड़ा देखिबि,
जऊनी साड़ी नीकी लगिहँई
तुमरे दद्दा तेने कहिके मंगाई लीबि।
हम कहेन ठीक भऊजी
अब हमका जाइ देउ,
कुछु टूटी-फाटी
कवितन का हमका लिखइ देउ ।
वहि घरका ना जाउ कबहुँ
May 19, 2020 in अवधी
वहि घरका ना जाउ कबहुं
जहां ना होइ सम्मान
नीके जहां कोइ नाइ मिलइ
हुंआँ जाइते हइ अपमान
रूखी-सुखी खाइ लेउ
बढ़िया व्यंजन छोड़ि
प्रेम की छूड़ी रोटी
छप्पनभोग सि बढ़िया होइ
आधी राति का आवेते
घरवाली होति हइ दिक्क
तउ जल्दी घर जावै लगउ
नइ रातिक होई खिटि-पिट्टी ।
अम्मा भई बाँवली..
May 18, 2020 in अवधी
सीतापुरिया अवधि:-
राति क द्याखँइ चांद-सितारा
दिनमाँ चांद निहारइ
दिन भरि छोटुआ-छोटुआ
कहिके अम्मा लाल पुकारइ
अम्मा भई बाँवली।
टूटी खटिया फटी चटाई
जब अम्मा पहुड़इ
चरमर-चरमर होइगइ पाई।
अम्मा भाई बाँवली…
घुटनन माँ तनिकऊ
बूत नाइ
तबहूँ लाठी लइकई
दिनु भरि
आइसी–वइसी दऊरईं ।
अम्मा भई बाँवरी…
बहुरिया लईके आवइ खाना
बुदु बुदु बुदु बुदु
अम्मा ब्वालई।
अम्मा भई बाँवली…
अम्मा भई बाँवली..
May 18, 2020 in अवधी
सीतापुरिया अवधि:-
राति क द्याखँइ चांद-सितारा
दिनमाँ चांद निहारइ
दिन भरि छोटुआ-छोटुआ
कहिके अम्मा लाल पुकारइ
अम्मा भई बाँवली।
टूटी खटिया फटी चटाई
जब अम्मा पहुड़इ
चरमर-चरमर होइगइ पाई।
अम्मा भाई बाँवली…
घुटनन माँ तनिकऊ
बूत नाइ
तबहूँ लाठी लाइकई
दिनु भरि
आइसी–वइसी दऊरईं ।
अम्मा भई बाँवरी…
बहुरिया लईके आवइ
बुदु बुदु बुदु बुदु
अम्मा ब्वालई।
अम्मा भई बाँवली…
घरवाली को बना खिलाओ
May 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
घर में ही बैठो और रहो मौन
ना करो किसी से झगड़ा
ना कोई कुतर्क
नहीं पड़ो किसी
प्रपंच में
यदि रहना है सुखी तो
बढ़ाओ अपनी
सहनशक्ति को
और बटाओ हाँथ
घर के काम में
कभी रसोईघर में भी हो आओ
कुछ कच्चा-पक्का
घरवाली को बना खिलाओ
मुफ्त में आर्डर मत मारो
जो भी मिल जाये
वो प्रेम सहित खालो
यदि नहीं करोगे ऐसा तो
तो महाभारत होनी है पक्की
लॉकडाउन को सुखी बनाने की
मेरी राय बहुत है अच्छी।
दर्दनाक मन्ज़र
May 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता
किसी का दम
निकलता है घर में
तो कोई सड़कों पर
मारा-मारा फिरता है
भूंख लगती है तो
सिर्फ प्यास बुझा लेता है
इतनी धूप में सब
घर में बैठे हैं
तो कोई सड़कों पर
पसीना बहाता फिरता है
कितना दर्दनाक है वो मन्ज़र
जब कोई मीलों का सफ़र
पैदल ही करता है