“कलम में स्याही”
कबूतर को भेजूं अब वो जमाना नहीं रहा खुद जाकर मिलूं यह सम्भव नहीं रहा कितने खत लिखे हैं उसके लिए मैंने डाकिया कहता है…
कबूतर को भेजूं अब वो जमाना नहीं रहा खुद जाकर मिलूं यह सम्भव नहीं रहा कितने खत लिखे हैं उसके लिए मैंने डाकिया कहता है…
यूँ ही सिलसिला चलता रहा कभी मैं कभी वो रूठता रहा टूटने लगे दिल बेतहाशा मगर इश्क आँच पर पकता रहा..
दूध के दाँत पालने में ही टूट गये गरीबी का थप्पड़ इतनी जोर से पड़ा लाद दी जिम्मेदारी की पोटली कंधों पर बचपन के खिलौने…
शिक्षा की खदानें बंद करो डिग्री बेचने वाली दुकानें बंद करो छात्रों को डालो जेलों में शिक्षकों की तनख्वाहें बंद करो ना लूटो हमको शिक्षा…
करुण रस की कविता:- ***************** जिसने हमको प्यार किया मेरी राह में सुबहो से शाम किया ना कद्र की हमनें एक पल भी उसकी अपशब्दों…
गिले-शिकवे जरा कम कर दिये हमनें जब से वो दूजी गली जाने लगे वो हमसे दूर रहकर खुश रहेंगे इसलिए हम ये दुनिया छोड़ आज…
रोम-रोम में बसी हमारे हिंदी राजभाषा है बन जाए यह राष्ट्रभाषा इस जीवन की यह आशा है हिंदी है परिपक्व, परिपूर्ण हिंदी ही ममता-सी निर्मल…
हिंदी दिवस:- चौदह दिसंबर को हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है उसी दिन क्यों हिंदी को सम्मान दिलाया जाता है हिंदी तो ऐसे ही…
अभिव्यक्ति ह्रदय से:- +++++++++++++ आज तोड़ दिया तुमने मेरा टूटा हुआ दिल ! ऐसा लग रहा है जैसे सीने पर एक पत्थर-सा रखा है मेरे।…
कहाँ रहे अब किताबों के दिन !! अब तो बस अलमारी में रखी हुई किताबें धूल खाया करती हैं गुजरती हूं जब कभी उनके करीब…
मैंने बड़े प्यार से पूछा आज उससे अगर मैं ना रहूं तो मेरी कमी तुम्हें खलेगी ? उसनें जवाब दिया- बादल चाहे जितने हों पर…
प्यार करना थी खता मेरी बता तो देते क्या थी सजा मेरी…
बेजान है ये जिस्म मेरा लफ्ज भी लड़खड़ा रहे हैं भाव हैं बिखरे हुए हम सिमट ना पा रहे हैं ख्वाहिशों के पन्ने भीगे हैं…
❤❤ अभिव्यक्ति दिल से ❤❤ *************************** पहली मुलाकात और पहली भेंट आज भी याद है मुझे… वह बरगद के नीचे बैठकर करी थी जो बातें…
चल साथी चल करें हम नये युग का सूत्रपात बढ़ चलें नवीन पथ पर हाथों में लेकर हाथ ना जाति-पांति के बंधन हों ना मरी…
मेरा जिससे था प्रेम प्रसंग वो रहता था हर पल मेरे संग हम एक दूजे के साये थे जन्मों बाद करीब आए थे.. वो हाथों…
सीता वियोग में बहुत विकल थे प्रज्ञा के श्रीराम ! एकाएक याद हो आई सिय से प्रथम मिलन की बेला !! ज्यों घोर तिमिर में…
एक सवाल पूंछना है तुमसे एक बार आकर तो मिलो सब कुछ तो ठीक हो गया है तुम्हारे जाने के बाद… पर नींद कहाँ गुम…
आंगन में एक पाटा रखकर पण्डित और परिचितों को बुलाकर लगा तैयारी में पूरा घर पकवान और मिष्ठान बनाकर हाथ जोड़कर सब बैठे हैं दादी…
होंठों की मुस्कान है बेटी सबके घर की शान है बेटी बेटा तो है कुल का दीपक दो कुल का अभिमान है बेटी..
मैंने कोई मौसम नहीं देखा ! मैंने तुम्हें चाहा है चाय की तरह !!
बेखुदी में जो उठ गये थे कदम तेरी बेवफाई याद आते ही खुद-ब-खुद रूक गये…
वो आज भी मुझे बेतहाशा मोहब्बत करता है, यकीन नहीं है मगर दिल को यही लगता है..
ऐसी लागी लगन सावन की मुझे, मैं तो घड़ी-घड़ी कविता बनाने लगी.. कभी सोते हुए कभी जगते हुए, बेखयाली में कुछ गुनगुनाने लगी.. गजलों में…
आज तोड़ दी मैंने पीली पत्तियां पौधों से उसी तरह जैसे मैं दिल से बेदखल हुई थी तुम्हारे ! हरी पत्तियों पर जब पड़ती हैं…
गुजार दी मैंने जिन्दगी बस इन्तजार में तुम आकर सम्भाल लोगे मुझे टूटते हुए..
तुम्हारा और मेरा हाल एक जैसा ही है, तुम्हें गैरों से फुर्सत नहीं हमें तुम्हारी यादों से…
ख्वाहिशें थी तुम्हें पाने की साहब ! पर बदनामी के सिवा कुछ ना हाथ आया..
क्या है आरक्षण और क्यों है आरक्षण ? क्यों हमें जाति के नाम पर अलग करते हो ? जब देखो तब हम युवाओं का बँटवारा…
कोरोना में लगा हुआ लॉकडाउन तो हट गया मेरी जिंदगी तो लॉकडाउन में ही बसर करती है..
मुझे मिटाकर कहता है वो तुम पहले जैसी नहीं रही, फकत शक्ल ही बची है खुशबू नहीं रही…
तू मेरी नज्म़ बन जाए मैं तेरी नज्म़ बन जाऊं तू मेरा राग बन जाए मैं तेरा राग बन जाऊं कुछ इस तरह जुड़ जाएं…
कितनी पी लेते हो जो होश नहीं रहता है जमाना तुम्हें शराबी कहके हँसता है… इतना धुत हो जाते हो कि कुछ भी याद नहीं…
गीत, गज़लें लिख रही हूँ कुछ अलग ही दिख रही हूँ होंठों पर हैं लफ्ज अटके मन ही मन में पिस रही हूँ आ गई…
अपने भाई दूज की तुमको खिला मिठाई आँखों में थी हया ग्लास पानी का लाई… तुम तिरछी नज़रों से मुझको यूँ देख रहे थे मन…
मुझको सो जाने दो जीवन रात हुई अब बहुत घनी नैनों से ओझल हैं सपनें साँसों से भी ठनी-ठनी आसमान बाँहें फैलाकर मेरे स्वागत को…
बहुत निराली है ये दुनिया प्रज्ञा ! यादों की बात तो करती है पर याद नहीं करती…
जब से अलग लिखने लगे हम सस्ते में बिकने लगे मौजें अलग होने लगीं पंख भी गिरने लगे बहरूपिया मन मोहकर बन बैठा है मेरा…
आपको लगता है क्या मैं चाँद हूँ या चाँदनी रात के झुरमुट में बैठी हूँ मैं कोई अप्सरा गीत हूँ या हृदय की टूटी-फूटी रागिनी……
जो सोया है अन्धकार में जागेगा नवल प्रभात उठ-उठकर देखेगा किरणें सूर्योदय सम होगा ललाट रजत-चाँदनी में स्वप्न को नित पुष्पित कर देखेगा नारी सम्मोहन…
क्या लिखूं कुछ भी समझ आता नहीं कोई भी अल्फाज दिल को अब भाता नहीं.. लिख तो चुकी हूँ हजार दफा खत तुमको आज क्या…
आज बहुत उदास है दिल ये मेरा जब से तुम मेरे सामने से आकर गए लगता है कुछ छिन-सा गया है मेरा भूला तो दिया…
अगर मैं गलत निकली तो कुछ भी हार जाऊंगी, लगा लो शर्त मुझसे तुम यकीनन हार जाओगे..
मेरी क्या मजबूरियां हैं कैसे बताऊं तुम्हें! मेरी सखियां भी कहती हैं तुम बात क्यों नहीं करती …
कैसे होगा ऐतबार उन्हें वफा पर मेरी, आजकल बहुत झूठ बोलती हो ! वो कहा करते हैं…
जब तुम्हारे और मेरे रास्ते अलग हैं तो मेरे रास्तों में आकर कांटे क्यों बिछाते हो? कोई मोहब्बत नहीं है हमसे अगर तो एहसान जताते…
फौज की तादात बढ़ाने से कुछ नहीं होगा चीन जंग जीतने के लिए शेर-सा जिगरा होना चाहिए..
आजकल वह बड़ा बेचैन रहते हैं.. हम जो जरा हँसकर किसी से बोल देते हैं..
मेहनत करने वाले मंजिल को पा जाते हैं और बेचारे कामचोर गाल पीटते रह जाते हैं..
जो नाउम्मीदी की डगर से गुजरते हैं वो ही शक्स पतन की बात करते हैं..
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