मत कर होड़ा होड़ी
मत कर होड़ा होड़ी बीच सड़क तू चलने में।
मत कर होड़ा होड़ी बीच सड़क तू चलने में।
सुख के झूठे मुखोटो का क्या मौल यह दुःख ही सच्चा अपना, जो हमने झैला है
कोरोना बीमारी के लगातार बढने के बावजूद किसी भी तरह की कोई सावधानी लेने से लोग परहेज कर रहे हैंं यह ऐसा समय है जब…
हर कविता को ‘नाइस’, ‘गुड’ कहकर झूठी तारीफ़ कहने की वजाए हम सही मूल्यांकन करे तो बेहतर होगा. तभी हम सब अपनी कविता में कुछ…
कोई दवा देता है, कोई देता ज़हर किसपे करे एतमाद, नहीं खबर कौन अपना यहां, कौन पराया सारा जहां है अपना, पराया शहर
क्या दूं उस सरकारी अफ़सर को? जो मांग रहा है हजार का हर्जाना मेरी दो सो की दिहाड़ी से
बेहिसाब अहसासों को हम सिमटे कैसे कहां हो पाता है मुकम्मल मकां-ए-नज्म मिरा हर बार टूट जाते है अहसास, ख्वाबों के जैसे
बन रंगरेज इस तरह रंग डाले, रंग ए रूह और भी निखर जाए। मिले गले इस तरह दोस्त बनकर, दुश्मनी हो अगर, टूटकर बिखर जाए।।
जब सब चेहरे के रंग को ही देखते है रंग ए रूह का पता कैसे चले
जिंदगी के किनारे रहकर जिंदगी गुजार दी मझधार में आये तो जिंदगी ने दबोच लिया
#kavita #poetry #Shayari #poetrywithpanna
बन रंगरेज इस तरह रंग डाले, रंग ए रूह और भी निखर जाए। मिले गले इस तरह दोस्त बनकर, दुश्मनी हो अगर, टूटकर बिखर जाए।।
कितनी मन्नतें माँगी, तब तुझसे मिलना हुआ, मगर मिलकर भी, हमारा मिलना ना हुआ।
जानता हूं तुम नहीं हो पास, समझता भी हूं| मगर जो मैं महसूस करता हूं हर पल उसे झुठलाऊं कैसे?
इक दास्तान है दबी दिल में कहीं कोई सुने तो हम सुनाये कभी|
गुजरती जाती है जिंदगी चुपके से लम्हो में छुपकर बहुत ढूढता हूं इसे, मगर कभी मिलती ही नहीं
इक नज्म है जो दबी हूई है दिल की दरारों में आज फिर बहुत कोशिश की मगर निकल ना पाई
जितना जिंदगी को पास बुलाओ जिंदगी उतना दूर हो जाती है मंजिलो पर नजर रखते रखते पैरों से राह गुम हो जाती है
देखा है दुनिया को अपनी दिशा बदलते अपने लोगो को अपनो से आंखे फ़ेरते कतरा कतरा जिंदगी का रेत फिसलता जाता है देखा है जिंदगी…
नहीं मालूम कहां गुम है वक्त सब ढूढ़ना चाहते है मगर ढ़ूढ़ने को आखिर वक्त कहां है सब कहते फिरते है, वक्त निकालूंगा वक्त निकालने…
इक मुखौटा है जिसे लगा कर रखता हूं जमाने से खुद को छुपा कर रखता हूं दुनिया को सच सुनने की आदत नहीं सच्चाई को…
इक अरसे बाद नजरे मिली उनसे हमारी नजरों ने पहचाना और अन्जान कर दिया
दिन, महीने और साल गुजरते जाते हैं और इक दिन आदमी भी इनमें गुजर जाता है|
कितनी मिन्नतों के बाद में मिला तुझसे मगर मिलकर भी मेरा मिलना न हुआ क़ी कई बातें, कई मर्तबा हमने मगर इक बात पे कभी…
अब नहीं होगा जिक्र आपका हमारे आशियाने में न होगी नज्म कोई आपके नाम से
दिन, महीने और साल गुजरते जाते हैं और इक दिन आदमी भी इनमें गुजर जाता है|
गुफ़्तगु बंद न हो, बात से बात चले मैं तेरे साथ चलूं, तू मेरे साथ चले|
आज कुछ लिखने को जी करता है आज फिर से जीने को जी करता है दबे है जो अहसास ज़हन में जमाने से उनसे कुछ…
चंद पन्नों में सिमट गयी दास्ता ए जिंदगी अब लिखने को बस लहू है, और कुछ नहीं|
इक रब्त था जो कभी रहता था दरम्या हमारे किस वक्त रूखसत हुआ, खबर नहीं|
इन परों में वो आसमान, मैं कहॉ से लाऊं इस कफ़स में वो उडान, मैं कहॉ से लाऊं (कफ़स = cage) हो गये पेड…
चमकता जिस्म, घनी जुल्फ़े, भूरी भूरी सी आंखे यही है वो मुज़रिम जिसने कत्ल ए दिल किया है – Panna
लिखते लिखते आज कलम रूक गयी इक ख्याल अटक सा गया था दिल की दरारों में कहीं|
जिंदगी खेलती है खेल हर लम्हा मेरे साथ नहीं जानती गुजर गया बचपन इक अरसा पहले खेल के शोकीन इस दिल को घेर रखा है…
जिंदगी का कारवां यूं ही गुजर जाता अगर तुम न मिलते हमारे लफ़्जों में कहां कविता उतरती अगर तुम न मिलते
मुकम्मल जिंदगी की खातिर क्या क्या न किया जिंदगीभर हमने मगर इक अधूरापन ही मिला जिसे साथ लिए घूमता रहता हूं मैं|
अपने ही अल्फ़ाजों में नहीं मिल रहा अक्स अपना न जाने किसको मुद्दतों से मैं लिखता रहा|
**** था पहले दिल मेरा इक गम की हवेली अब हजारों गमों के झुग्गीयों की बस्ती हो गया!! ****
लिखते लिखते स्याही खत्म हो गयी दास्ता ए इशक हमसे लिखी न गयी|
कभी वो भी आयें, उनकी यादों के आने से पहले फ़िजा महक भी जाये, सावन के आने से पहले
इक अजीब सा डर रहता है आजकल पता नहीं क्यों, किस वजह से, किसी के पास न होने का डर या किसी के करीब आ…
कभी गुजरती थी जिंदगी धीरे धीरे, कभी साइकिल पे, कभी पैदल इक बचपन क्या गुजरा जिंदगी को जैसे पर लग गये
तेरा ज़िक्र तो हर जगह होता है दर्द ए अश्क आंखों में जो भरा होता है
लफ़्जों का खेल तो देखो कभी हंसाते है, कभी रूलाते है
न हुई सुबह न कभी रात इस दिल ए शहर में कितने ही सूरज उगे कितने ही ढलते रहे
कर रहे थे बसर जिंदगी गुमनाम गलियों में आपकी मोहब्बत ने हमें मशहूर कर दिया पुकारने लगे लोग हमें कई नामों से हमें यूं बदनाम…
लङता अंधेरे से बराबर नहीं बेठता थक हारकर रिक्त नहीं आज उसका तूणीर कर रहा तम को छिन्न भिन्न हर बार तानकर शर लङता अंधेरे…
बिना कलम मैं कौन क्या परिचय मेरा कहां का रहवासी मैं शायद कविता लिखने वाला कवि था मैं पर अब मै कौन बिना कलम मैं…
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